पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/४८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४3
पत्र : मणिलाल नथुभाई दोशीको

सावधानी रखी जाये उतनी कम है और जो मनुष्य यह सावधानी नहीं रख सकता उसने तो ब्रह्मचर्यका पहला पाठ भी नहीं सीखा। वाणीकी गिनती शरीरमें की जा सकती है, क्योंकि वाणीका प्रेरक मन है, किन्तु अपने-आपमें वह शारीरिक वस्तु ही है। फिर रहा मन। ज्यों-ज्यों मनुष्य मनको जीतता जाता है, त्यों-त्यों शरीर किसी तरहकी जोर-जबरदस्ती के बिना आसानीसे अंकुशमें रहता है। किन्तु जबतक मनको सम्पूर्ण रूपसे नहीं जीत लिया जाता तबतक स्खलनकी सम्भावना बनी रहती है। स्खलनसे डरना नहीं चाहिए। डर तो मनके विषय में होना चाहिए। स्खलन मानो कुदरतकी ओरसे इस बातकी चेतावनी है कि मनपर अभी हमारा पूरा नियन्त्रण नहीं हुआ है। जिन्होंने अपने विकारोंको जीता नहीं है ऐसे मनुष्य स्खलन न होने पर ही सन्तुष्ट रहते दिखाई पड़ते हैं और अपने मनमें वे इस बातपर गर्वका अनुभव करते हैं। किन्तु सच पूछो तो यह गर्व उनके पतनका चिह्न है। अमेरिकामें तो ऐसे उपाय ढूंढ लिये गये हैं जिनसे स्खलन नहीं होता और फिर भी मन विकार- युक्त रह सकता है। किन्तु ऐसे मनुष्यको ब्रह्मचारी कहना तो इस शब्दकी हत्या करनेके समान है। इसलिए यह याद रखना चाहिए कि वीर्यकी रक्षा ब्रह्मचर्यका बाहरी रूप है सही, किन्तु यह बात निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सकती कि जहाँ वीर्य की रक्षा है वहाँ हमेशा ब्रह्मचर्य भी पाया ही जायेगा । हाँ, पूर्ण ब्रह्मचर्यका यह एक आवश्यक अंग है, इसमें कोई शंका नहीं। ये शब्द लिखने में मेरा आशय इतना ही है कि प्रामाणिक और सतत प्रयत्न करनेके बावजूद, सावधान रहने के बावजूद जितने भी उपाय किये जा सकते हैं उन सभी उपायोंके बावजूद यदि स्खलन हो जाये तो उसमें घबरानेकी बात नहीं है। ऐसा मानकर कि यह तो कोई बड़ा अपराध हो गया निराश होनेकी जरूरत नहीं है। उसके सम्बन्धमें हमारा दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि दयालु प्रकृतिने हमें यह चेतावनी दी है और ऐसा समझकर हमें अपने प्रयत्नमें और गहरे उतरना चाहिए। विकार जहाँ छिपकर बैठा हुआ है उसे वहाँसे ढूंढ़ निकालना चाहिए और उसे बाहर करनेका पहलेसे अधिक प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्नकी सफलता तो प्रयत्नमें है ही। हाँ, यह सावधानी रखनी चाहिए कि हम किसी बहाने अपने मनको धोखा देकर मानसिक विलासका पोषण न करें। और जिन-जिन कार्योंसे, जिन वस्तुओं और जिन व्यक्तियोंके संगसे हमारा पतन होता है, हमारे प्रयत्नमें शिथिलता आती है उनसे हम दूर रहें, फिर भले ही ऐसा करनेसे हमारे धन्धेका नाश होता हो तो हो, धनकी बरबादी होती हो तो हो और समाज हमें मूर्ख कहता हो तो कहे ।

परमात्माके दर्शनके लिए विकारशून्य होनेकी आवश्यकता है, और जो विकार तब भी रह जाते हैं उनका नाश दर्शनसे सिद्ध हो जाता है । दर्शन कैसे हों इसका कोई बँधा-बँधाया उपाय नहीं है। कोई तीसरा आदमी हमें उसका रहस्य नहीं बता सकता। सच पूछो तो शास्त्र और शास्त्रज्ञ, दोनों ही, केवल अपने अनुभव हमें सुनाते हैं। हममें अश्रद्धा हो तो वे अपने अनुभवसे हममें श्रद्धा जगाते हैं। किन्तु प्रयत्न तो हमें ही करना है। हमारी ओरसे कोई तीसरा आदमी यह प्रयत्न नहीं कर सकता ।