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क्षणिक आनन्द या शाश्वत कल्याण ?

सामने अपना एक बड़ा सवाल खड़ा है, जो उसकी अपनी ही सभ्यताका प्रतिफल है, तो हमारी अपनी सभ्यताकी समस्याएँ भी किसी प्रकार कम गम्भीर नहीं हैं, जिनको हमें सुलझाना है।

शायद इस सन्दर्भ में इन दोनों सभ्यताओंकी तुलना करना यदि बेकार नहीं तो अनावश्यक ही है। हो सकता है कि पश्चिमने शायद अपनी परिस्थिति और आबोहवाको देखते हुए तदनुसार ही अपनी सभ्यता गढ़ ली हो । और उसी प्रकार हमने भी अपनी परिस्थितिके अनुसार अपनी सभ्यताका विकास किया हो और दोनों ही अपने-अपने दायरेमें अच्छी हों। पर यह तो हम बेखटके कह सकते हैं कि उपरोक्त प्रकारके अपराध और मनमानी हरकतें हमारे यहाँ लगभग असम्भव हैं। मैं समझता हूँ कि यह हमारी शान्तिमूलक शिक्षा और उस आत्मनिग्रहके वातावरणके कारण है, जिसके बीच हमारा लालन-पालन होता है। लेकिन यदि हमें आधुनिक विवेकहीन अमर्यादित आचरणके झोंकोंसे इस प्राचीन सभ्यताको बचाकर जीवित रखना है तो उस कायरतासे, जो बहुधा शान्तिमूलक शिक्षासे आती है और उस हीनताकी भावनासे जो संयम तथा निषेधके परम्परागत वातावरणसे उत्पन्न होती है, किसी न किसी प्रकार छुटकारा पा लेना चाहिए। इधर आधुनिक सभ्यताका सबसे प्रधान लक्षण है मनुष्यका अपनी आवश्यकताओंको अन्धाधुन्ध बढ़ाते जाना, तो प्राचीन पूर्वीय सभ्यताका मुख्य लक्षण है इन आवश्यकताओं या कामनाओंपर कठोर प्रतिबन्ध लगाना और उनको सख्तीसे मर्यादित करना। इस आधुनिक अथवा पाश्चात्य अतृप्तिका मुख्य कारण है [ जीवनके] भविष्यमें और इसी कारण ईश्वरीय शक्तिमें सजीव श्रद्धाका अभाव; पूर्वी या प्राचीन सभ्यताके संयमकी जड़ उस श्रद्धा और विश्वासमें है, जो कई बार अनिच्छासे भी, हमें [जीवनकी ] भावी स्थिति और ईश्वरीय सत्ताके अस्तित्वमें करना पड़ता है। यदि हम लेना चाहें तो उपरोक्त संक्षिप्त वर्णनसे चेतावनी ले सकते हैं कि पश्चिमके अन्धानुकरणसे हमें बचना चाहिए, जो बहुधा भारतके शहरी जीवनमें और खासकर शिक्षित वर्गीमें पाया जाता है। आधुनिक आविष्कारोंके कुछ तात्कालिक और शानदार परिणाम जरूर ऐसे हैं, जो इतना चकित कर देनेवाले हैं कि उनके प्रति लोभ संवरण कर सकना कठिन है। लेकिन मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि मनुष्यका सच्चा पुरुषार्थ और विजय तो इसी संवरणकी सफलतामें है। एक क्षणिक आनन्दके बदले इस समय हम अपने शाश्वत कल्याणको गँवा देनेकी जोखिम भरी स्थितिमें हैं।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, २-६-१९२७