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'वेदमें चरखा'

एवं इसकी रक्षा करना कवियोंका कार्य था। जब मैंने अपने कविको [१]यज्ञके रूपमें नम्रभावसे चरखा भेंट किया था तब मुझे कतई मालूम न था कि इसके पीछे सबसे पुराने कहे जानेवाले वेदका प्रमाण है। जो इस प्राचीन और पवित्र उद्योग एवं कलाके पुनरुद्धार कार्यमें लगे हुए हैं, मैं उन सबका इस मन्त्रकी ओर ध्यान दिलाता हूँ । कताई यज्ञ करते हुए वे विचारपूर्वक इस मन्त्रका पाठ करें। इसे अपने मनमें सँजोकर रखें और अपने अग्रिम प्रमाणमें निराशाओं एवं पराजयका सामना होनेपर भी अपना विश्वास विचलित न होने दें।

मैं इस पुस्तिकासे एक और सुन्दर मन्त्र उद्धृत किये बिना नहीं रह सकता :

यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः ।।
इमे वयन्ति पितरा च आययुः प्रवयाप वयेत्यासते तते ।। ऋ १० । १३० । १

यह मन्त्र भी 'ऋग्वेद' १० । १३० । १ से उद्धृत है। इसका अर्थ है:

एक सौ एक कलाकार यज्ञमें काम कर रहे हैं। वह अनगिनत धागोंके

द्वारा पृथ्वीतलपर फैला हुआ है। वहाँ बुजुर्ग संरक्षक उपस्थित हैं। वे इन प्रक्रियाओंको ध्यानसे देखते हुए कहते हैं । "यहाँ बुनो, वहाँ इसे ठीक करो।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि कताई और बुनाईको उस प्राचीन कालमें भी यज्ञ माना जाता था। बड़े लोग उसकी सावधानीसे रक्षा करते थे। लेखकने पर्याप्त प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि कताई और बुनाईका काम स्त्री-पुरुष दोनों ही करते थे । वास्तव में यह उद्योग उतना ही व्यापक था जितना खेती । वह यह भी सिद्ध करते हैं कि उन दिनों सिलाई कला भी अत्यन्त समुन्नत थी । विभिन्न अवसरोंके लिए तथा विभिन्न राज्योंके लिए विभिन्न पहनावोंका विधान था । यदि किसान लोग लँगोटी पहनते थे, तो राजवंशके लोगोंकी अपनी पोशाक थी। रंगों, झालरों एवं सुनहरी किनारियोंका भी वर्णन है । लेखकने यह भी दिखाया है कि कुछ एक सुन्दरतम रूपक कतैयों और बुनकरोंकी भाषासे लिये गये हैं।

सोच-विचार कर लिखी गई इस पुस्तिकासे और उद्धरण देनेका लोभ संवरण मुझे करना ही चाहिए। उसमें एक मन्त्र है जिससे प्रमाणित होता है कि सिपाहियोंको भी यह कार्य करना पड़ता था। वरके वस्त्र सदा वधू द्वारा तैयार किये जाते थे जैसी कि आजकल भी असममें प्रथा है ।

बहरहाल उसमें एक और चीज है जो लेखकने वैदिक साहित्यके अन्य अन्वे-षकोंके अनुसन्धानके लिए छोड़ दी है। जहांतक वे वेदोंका अध्ययन कर सके हैं उन्हें ऊन और रेशमके समान सूतका एक भी पर्यायवाची शब्द नहीं मिला । इसलिए वे यह कहनेमें असमर्थ हैं कि क्या उन दिनों हमारे पूर्वज केवल ऊनी और रेशमी वस्त्र ही पहनते थे या वे सूती धागेका भी आविष्कार कर चुके थे।

[ अंग्रेजी से ]
यंग इंडिया, २-६-१९२७
  1. रवीन्द्रनाथ ठाकुर। ३३-२९