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पत्र : मीराबहनको


तुमने जिस दृश्यका वर्णन किया है उसे में उन लोगोंका एक बहुत ही अनुचित और अनैतिक कार्य भी मानता हूँ जिन्होंने तुम्हें प्रलोभनमें फँसानेकी और उस बुरी चीज (भाँग) को करीब-करीब तुम्हारे और बेचारी गंगूके गलेसे नीचे जबरन उतार देनेकी कोशिश की । और फिर तुम्हारा उस गन्दे पानीको बिखेरनेके लिए उनकी ओर अपनी पीठ फेर लेनेका दृश्य जितना कि एक मदिरालयके दृश्यसे मेल खाता है उतना एक ऐसे ब्रह्मचर्य आश्रमके दृश्यसे नहीं, जहाँ ईश्वरकी और मानवकी सेवा लक्ष्य मानी जाती है और जहाँ ब्रह्मचर्यका कड़ा पालन किया जाता है। तुम्हारा उपवास करना तुम्हारे शुद्धीकरणके लिए ठीक था । उसने तुम्हारी शुरूकी, पहली भूलका परिमार्जन कर दिया है और यदि आश्रमके प्रबन्धक उससे कुछ चेतावनी लें तो वह एक नरम चेतावनी है। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हें अपना [विरोध-प्रदर्शनका ] काम आगे जारी रखना चाहिए इसके लिए राव साहब और आश्रम के अन्य अन्तेवासियोंसे तथा तुम चाहो तो स्वयं महाराजजीसे इस सम्बन्धमें दृढ़तापूर्वक बातचीत करो। अपने पहलेके एक पत्रमें [१] मैंने जहाँ तुम्हें यह लिखा था कि आश्रमको भाँगकी आदतसे छुटकारा दिलानेसे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, अब तुमने उसके बाद हुई घटनाओंका जो वर्णन किया है, उसे देखते हुए तुम्हारा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि या तो आश्रममें भाँगकी इति कर दो या फिर वहाँ अपनी उपस्थिति की इति कर दो। मैं स्त्री, पुरुष दोनोंके लिए यह नितान्त असम्भव मानता हूँ कि वे भाँगके नशेमें डूबकर वासनापूर्ण उद्वेगोंसे मुक्त रह सकें। वे बाहरी तौरपर शारीरिक नियन्त्रण भले ही रख सकें, यद्यपि भांगके अपने अनुभवसे तो मुझे ऐसा लगता है कि जब मैं भाँगके नशेमें होता था, उस वक्त कोई भी आदमी या औरत मेरे साथ कोई भी खिलवाड़ कर सकता था। और अब चूँकि तुम्हारी आँखें खुल गई हैं, तो वे जबतक अपने तरीके सुधारनेको ईमानदारीके साथ तैयार नहीं हो जाते, आश्रमको कोई समर्थन देना तुम्हारे लिये अनुचित होगा। तुम कोई राज्य प्राप्त करने के लिए भी अथवा इस खयालसे भी कि आश्रम ही एक ऐसा स्थान है जहाँ तुम अपना हिन्दीका पाठ्यक्रम पूरा कर सकती हो, आश्रमको अपना सहयोग न दो । तुम उनसे कह सकती हो कि तुम वहाँ उनपर अपने विचारोंको थोपने के लिए नहीं हो, लेकिन एक मित्रके नाते तुम्हारे लिए उनका ध्यान एक ऐसी बुराईकी ओर आकर्षित करना लाजिमी हो गया है जिसकी तरफ तुम्हारा ध्यान जबरन खींचा गया । और जबतक वह बुराई खत्म नहीं कर दी जाती, सो भी तुम्हारे लिये नहीं वरन् उसे सचमुच बुराई मानकर, तबतक तुम निजी शिष्टाचार या हिन्दीकी शिक्षाके रूप में निजी तौरपर अनुग्रह पानेके लिए वहाँ नहीं रह सकतीं। इसलिए यदि वे लोग भाँगकी बुराईके बारेमें तुमसे सहमति नहीं रख सकते, तो भी तुम उनकी मित्र ही बनी रहोगी, लेकिन शायद फिर आश्रममें नहीं रह सकोगी और न ही वालुंजकर और गंगू वहाँ रह सकेंगे, क्योंकि वे भी उसी अनुशासनके अधीन हैं जिसके अधीन

तुम हो। तुम जिस किसीको यह पत्र पढ़कर सुनाना चाहो, सुना सकती हो । मैंने

  1. देखिए "पत्र : मीराबहनको ", २८-५-१९२७।