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४३३. पत्र : रेहाना तैयबजीको

नन्दी हिल्स
३ जून, १९२७

प्रिय रेहाना,

तुमने कितना अद्भुत और काव्यात्मक स्नेहपत्र मुझे भेजा है। मुझे मालूम नहीं कि पिताजीको [१]लिखे मेरे पत्रकी पहुँचके पहले तुमने पत्र रवाना कर दिया था या पिताजीको लिखे मेरे पत्र में जो मैंने स्मरण कराया था, यह पत्र उससे प्रेरित होकर लिखा गया। मुझे खुद अधिक नहीं लिखना चाहिए; और मुझे बहुत ज्यादा समयतक बोलकर भी नहीं लिखवाना चाहिए। इसलिए मैं तुमसे लम्बी बातचीत नहीं करना चाहता। लेकिन मैं तुम्हें यह तो एकदम बता देना चाहता हूँ कि यदि तुम आश्रम में प्रसन्नतापूर्वक आरामसे रह सकती हो, तो बावजूद इसके कि तुम अपने हाथसे कुछ काम नहीं करोगी, मैं तुम्हें आश्रममें रखना पसन्द करूंगा। हाथसे सूत कातना आखिर एक परीक्षा है; एक प्रतीक है; भीतर जो भाव है उसकी ईमान- दारीसे को गई अभिव्यक्ति है; और मैं जानता हूँ कि तुम्हारे भीतर वे सब चीजें हैं। तब अगर तुम अपने किसी प्रकृतिगत दोषके कारणसे नहीं, लेकिन सूत कातने के लिए शारीरिक कारणोंसे असमर्थ हो तो इससे क्या फर्क पड़ता है। अन्तरकी भावनासे किया हुआ काम असंख्य गुना मूल्यवान् है और बहुतेरे लोगोंकी उस औपचारिक सूत कताईसे अधिक मूल्यवान् है, जिसके पीछे हृदयकी भावना नहीं है। इसलिए तुम जब चाहो आश्रम में अपने ही घरकी तरह आ सकती हो और मुझे, जो तुम्हारी आवाज मुझे दे सकती है, निश्चय ही उस सबका लाभ मिलेगा। यदि तुम्हारी आवाज इतनी अच्छी और मधुर न होती, तो भी मैं आश्रम में तुम्हारा रहना उचित मानता। मैं जिस चीजकी कद्र करता हूँ वह है तुम्हारी भलमनसाहत, जो बिना तुम्हारे बोले भी असर पैदा कर सकती है। वह एक मीठी सुगन्धवाले फूलकी सुगन्ध जैसी है। उसके लिए किसी भी हरकतकी जरूरत नहीं होती, फिर भी वह सुगन्ध सर्वव्यापी और अचूक होती है और फूलको उसके स्थान से हटा लेने के बाद भी कुछ देरतक बनी रहती है। तो फिर शरीरके दूर हो जानेके बाद भी भलमनसाहतकी सुगन्ध तो अपेक्षाकृत और भी कितने ज्यादा समयतक बनी रहनी चाहिए। लेकिन इस बातको कि तुम्हें आश्रम अच्छा लगेगा और तुम्हारा शरीर आश्रम जीवनको सह सकेगा या नहीं अच्छी तरह सोच समझ लेना ।

  1. अब्बास तैयबजी।