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४३५. पत्र : एम० एस० केलकरको

नन्दी हिल्स
३ जून, १९२७

प्रिय डाक्टर,

आपके पत्र हमेशा दिलचस्प और शिक्षाप्रद होते हैं। क्या मैं यह मतलब निकालूं कि मेरा गेहूँ या जौ, नमक, सोडा और सब्जियोंको बिलकुल ही त्यागकर केवल दूध, पानी और फलपर ही रहना आप ज्यादा पसन्द करेंगे। क्या मेरा ऐसा सोचना कि आप कच्चे दूधको उबले दूधसे ज्यादा बेहतर मानते हैं, सही है ?

हाँ, मुझे जीवाणुशून्य अण्डों और उनके संवर्धन एवं किस्म सुधारने के सम्बन्धमें आपकी बातकी खूब याद है। मैं स्वयं यहाँ भी पूछताछ करूँगा, लेकिन यदि आपके पास इस विषयपर कुछ साहित्य है, तो मैं उसका अध्ययन करना चाहूँगा। कुछ और विचार किये बिना में यह कहनेको तैयार हूँ कि मैं जीवाणुशून्य अण्डोंको जैसा कि आपने उनके बारेमें कहा है, उसी कोटिमें रखूंगा जिसमें दूध है। इसलिए में उनके बारेमें और उनकी किस्म सुधारनेके बारेमें आपसे और निर्देश लेना चाहूँगा।

ज्योतिषके महत्त्वके सम्बन्धमें मुझे आप किसी-न-किसी दिन विश्वास दिलाइए; क्योंकि मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि वह एक सच्चा विज्ञान हो सकता है। लेकिन मैं प्रत्येक विज्ञानके अनुसन्धान और प्रयोग मानवताके लिए लाभकारी नहीं मानता ।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी (एस० एन० १४१४५) की फोटो-नकलसे ।

 

४३६. पत्र: गंगूबहनको

३ जून, १९२७

ब्रह्मचर्यादिका पालन आन्तरिक प्रेरणासे और आन्तरिक शक्तिकी वृद्धिसे ही हो सकता है। और इस शक्तिकी वृद्धि अभ्याससे ही हो सकती है। अभ्यास दो प्रकारका होता है। एक तो अच्छे ग्रंथोंका विवेक और विचारपूर्वक पाठन और दूसरा उच्च शिक्षणका अमल करनेका मुहावरा । बगैर अमलका अभ्यास निरर्थक हो जाता है, और मनुष्यमें घमण्ड पैदा कर देता है। इसलिये जो कुछ भी पढ़ा जाय उसका शीघ्रतासे अमल करना चाहिये, जैसा कि ब्रह्मचारिणीको अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह इत्यादिका पालन करना है इसलिये वह सूक्ष्मतम असत्यसे भी बचे- हिंसासे भी मानसिक, वाचिक और कामिकसे भी बचनेका बड़ा प्रयत्न करेगी इस तरहसे संग्रह मात्रका