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पत्र : श्री० दा० सातवलेकरको


त्याग करनेकी चेष्टा करेगी। शास्त्रमें हम पढ़ते हैं शौर्य और संतोष आवश्यक नियम है। शौर्यके लिये दोनों विभाग वाह्य और आन्तरिक समझ लेना और समझ गये वैसे ही उसका पालन करनेका उद्यम करना । ऐसे ही सन्तोष हमें कोई गाली दे, मूर्ख कहे, हमारी कोई निंदा करे, तो भी हम उद्विग्न न बनें। यह संतोषका एक लक्षण है। हमको भूख लगी है, खाना नहीं मिलता, ठंड लगी है, पहनना नहीं मिलता तो भी संतुष्ट रहें। इस तरह जब हम जितना सीखें उसका अमल न करें, तबतक दूसरा कोई शिक्षण लेनेका इन्कार करें ! उसी वस्तुको बढ़ानेके लिये जो आवश्यक अभ्यास है उसको अवश्य करें, परंतु किसी नई बातका ख्याल भी न करें। यह भी ब्रह्मचर्य धर्म है। क्योंकि ब्रह्मचर्य मर्यादाकी परिसीमा है !

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई

 

४३७. पत्र : श्री० दा० सातवलेकरकोो

३ जून, १९२७

इस मासका 'वैदिक धर्म' प्रायः खत्म किया। उसमें ब्रह्मचर्यका लेख है उस विषयमें थोड़ा कहना चाहता हूँ। "ब्रह्मचर्य " का अर्थ आपने केवल वीर्य रक्षा ही किया है और उसी बारेमें मर्दानी व्यवसाय जैसा कि शिकार इत्यादिका उल्लेख किया है। परदेशगमन उपनिवेशोंकी स्थापना इत्यादि भी इसमें आता है। मेरा विनय है कि इसमें विचारदोष आते हैं। एक तो ब्रह्मचर्यका संकुचित अर्थ है जिस ब्रह्मचर्यके लिये आपने आरंभमें 'अथर्ववेद 'का मन्त्र दिया है। और जिस ब्रह्मचर्यसे मनुष्य मृत्युको तैर जाता है उस ब्रह्मचर्यकी परिसमाप्ति केवल वीर्य रक्षामें नहीं हो सकती है। और दूसरा दोष अतिव्याप्तिका है। ब्रह्मचर्यके साथ पराक्रम इत्यादिका कोई संबंध नहीं है। ऐसा हम आजकल संसारमें देख रहे हैं। केवल वीर्यरक्षा ही यदि ब्रह्मचर्यका हेतु है तो मैंने मेरे एक पत्रमें बताया है कि यह कार्य एक शस्त्रक्रिया ही चन्द मिनिटमें सिद्ध हो सकता है। इस शस्त्रक्रिया से मनुष्य नपुंसक नहीं बनता है, परंतु केवल वीर्यकी रक्षा कर लेता है, और आरामसे कामादि भोग भोग लेता है, ऐसे मनुष्यके पराक्रममें, साहसमें, कोई न्यूनता नहीं आती है। परंतु मैं तो जानता हूँ कि आप इसको ब्रह्मचर्य नहीं कहेंगे ।

आपके ब्रह्मचर्यके लिये केवल कामादि विकारोंका पराजय करना यही साधन है। और वीर्यरक्षा उसका एक बड़ा तो भी गौण फल है। उसका सीधा और प्रधान फल ब्रह्म प्राप्ति है । और वही पराक्रम इस ब्रह्मचर्य मार्गमें ग्राह्य और धर्म्य है। शत्रुका पराजय, परदेश गमन, साहसके बड़े-बड़े कार्य इत्यादि फल प्राप्ति जब हजारों मनुष्योंको गैर ब्रह्मचर्य मिल सकती है तब वे क्यों निर्विकार रूप कष्ट साध्य ब्रह्मचर्य के लिये व्यर्थ प्रयत्न करेंगे, और कोई नहीं करता है ऐसा मैंने तो खूब देख