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४४६. राष्ट्रीय शिक्षा

ठेठ नैरोबीसे एक भाईने एक पत्र लिखा है जिसका सार यह है : राष्ट्रीय शिक्षा आगे प्रगति नहीं कर सकती इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय शालाओं में विद्यार्थियों को ऐसा कुछ नहीं सिखाया जाता जिससे वे आगे चलकर अपने पैरोंपर खड़े हो सकें। यदि उन्हें खेतीका काम सिखाया जाये तो यह कठिनाई दूर हो सकती है। उन्हें चरखा चलाना तो सिखाना ही चाहिए। राष्ट्रकी तरह शालाओंमें भी खेतीको प्रथम और चरखेको दूसरा स्थान प्राप्त होना चाहिए ।

इस टीकापर 'नवजीवन' में पहले विचार किया जा चुका है। किन्तु अखवारोंमें हुई चर्चाको याद रखनेका रिवाज नहीं है। इसलिए जब कभी इस तरह के प्रश्न उठते हैं तब उनपर पुनः विचार करना पड़ता है। यह माननेका कोई कारण नहीं कि राष्ट्रीय शिक्षा की गति खेतीके कामकी शिक्षाकी व्यवस्था न होनेके कारण मन्द हो गई है। राष्ट्रीय शिक्षाकी गति जिस हदतक मन्द हुई है, उस हदतक उसका कारण शिक्षक हैं। मैं यह बात कई बार कह चुका हूँ और लिख चुका हूँ और यह सिद्ध भी की जा सकती है। मैंने 'नवजीवन में कई बार लिखा है कि जहाँ शिक्षक चारित्र्यवान्, लगनवाले, श्रद्धाशील और सजग हैं, वहाँ आज भी राष्ट्रीय शालाएँ अच्छी चल रही हैं ।

इस तरह यद्यपि राष्ट्रीय शिक्षाकी गति मन्द होनेके लिए शिक्षक जिम्मेदार हैं, तथापि इस बारेमें उन्हें भी दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे भी तो स्वयं प्रतिकूल राजतन्त्रके और गुलामी पैदा करनेवाली शिक्षाके शिकार थे, और इन बुराइयोंसे बड़ी मुश्किलसे मुक्त हुए थे। उनसे जितना योगदान किया जा सका, वे उतना देकर शान्त हो गये । राष्ट्रीय शिक्षाकी प्रगति अब तो तभी होगी जब वर्तमान राष्ट्रीय शालाएँ अपने तेजको प्रकट करेंगी और यदि वे टिकनेवाली हैं तो उनमें वह तेज अवश्य प्रकट होगा। सरकारी शालाओंमें भी ऐसी शिक्षा कहाँ दी जाती है, जिससे उनके शिक्षित विद्यार्थी आगे चलकर अपने पैरोंपर खड़े हो सकें? फिर भी वे तो ज्यों-की-त्यों चल ही रही हैं, क्योंकि हमारी आँखें तो उनकी चकाचौंधके कारण अंधी हो गई हैं। दूसरे, उस शिक्षामें यह लालच है कि उसे पाकर उनमें से कुछको तो चार या पाँच सौ या उससे ज्यादा रुपयेकी नौकरियाँ मिल सकती हैं। जुए या लॉटरीमें जो होता है वही इसमें भी होता है। किसी-न-किसीको तो हजार दो हजारका इनाम मिलेगा ही; हो सकता है, मुझे ही मिल जाये, हजारों आदमी इसी आशासे उसमें अपना भाग्य आजमानेके लिए तैयार हो जाते हैं। यही बात सरकारी शिक्षाके विषयमें भी है। किन्तु राष्ट्रीय शिक्षामें ऐसा कोई लालच नहीं है ।

अब हम इस सुझावके गुण-दोषोंपर विचार करें। खेती जरूर हमारे देशका एक प्रधान धन्धा है। परन्तु वह जीवित है, नष्ट नहीं हुआ है। इसलिए उसके