पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/५०८

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ज्येष्ठ सुदी ६ [५ जून, १९२७]

बहनो,

तुम्हारा पत्र मिला ।

आज मैं बंगलोर पहुँच गया हूँ। कोई तकलीफ नहीं हुई। डाक्टर देख गये

हैं; उनका कहना है कि महीने-भरमें मैं काफी अच्छा हो जाऊँगा ।

रमणीकलाल भाईका कथन सत्य है । पुस्तकें तो बहुतेरी पढ़ने लायक हैं। वे चाहे जिस पुस्तकको पसन्द करें। अन्तमें दारोमदार तो इस बातपर रहता है कि पढ़नेवाला उसे कितने उत्साहसे पढ़ता है। जो किताब पढ़ी जाये उसका कोई भाग समझमें न आये तो उसे कोई बहन यों ही न छोड़ दे, बल्कि बार-बार पूछकर समझ ले । एक ही चीज इस तरह समझनेसे और अनेक चीजें समझ में आ जाती हैं। मणि- बहनकी बनाई हुई चूड़ी मुझे बहुत प्रिय लगी है। मैने सुझाव दिया है कि चूड़ी खादीकी नहीं, बल्कि सूतकी होनी चाहिए। राखी भी चूड़ी ही है और वह सूतकी होती है। सूतकी चूड़ीमें चाहे जितनी कला और चाहे जितने रंगोंका समावेश किया जा सकता है। मुझे विश्वास है कि अपने पहननेकी चीजमें अपने हाथों भरी गई कलासे जो निर्दोष आनन्द मिलता है, वह लाखोंकी रत्नजटित चूड़ियोंसे नहीं मिलता।

मीराबहनसे कहना कि वह पढ़ना चाहे तो उसे नियमित रूपसे जेकी बहनके पास जाना चाहिए; जब मनमें आये तब जायें, ऐसा नहीं ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ३६५२) की फोटो-नकलसे ।

४५०. पत्र : कुमीको

बंगलोर
ज्येष्ठ सुदी ६ [५ जून, १९२७]

चि० कुमी,

तुम्हारा पत्र मिला । तुम्हारे दुःखसे मुझे दुःख होता किन्तु उसे सहन करनेको कहनेके सिवा और सान्त्वना क्या दे सकता हूँ । चि० हरिलालका आखिरी पत्र पिछलेसे भी बुरा है। पर ऐसा समझकर कि वह तो रोगी है, वह जो कुछ लिखे उसे भुला देना तुम्हारा और मेरा धर्म है। मैं मानता हूँ कि किसी-न-किसी दिन उसे होश आयेगा । तुम दोनों बहनोंमें से कोई यह तो नहीं मानती न कि मैंने तुम्हारे या उसके विषयमें कहीं बात की है। तुम्हारे ऊपर जो बीता है उसके बारेमें मैंने हरिलालके