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४५३. पत्र : मीराबहनको

६ जून, १९२६

चि० मीरा,

तुम्हारे पत्र बराबर मिल रहे हैं। लेकिन तुम्हारे लिये यह जान लेना ठीक रहेगा कि एक पत्र उसके बाद लिखे गये पत्रके बाद मिला। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि उसे दो दिनकी देर कैसे हुई और वह कहाँ रुका रहा। क्या तुम पत्र खुद डाकमें छोड़ती हो, या यह काम कोई और करता है ?

तुम जब चाहो जरूर पत्र लिखो। वहाँकी घटनाओंका क्रमिक विकास जानने में मेरी दिलचस्पी है। सोमवारके बाद मैं पत्र केवल तभी लिखूंगा जब लिखना जरूरी होगा ।

तुमको जो अनुभव हुए हैं उनके बाद भी अगर सब ठीक चलता रहे, तो मुझे खुशी होगी। लेकिन मेरी समझमें नहीं आता है कि जबकि प्रमुख लोग अपनी बात पर जमते नहीं हैं और बहानेबाजी करते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन तुम्हारे पास मेरा पूरा विस्तारसे लिखा हुआ पत्र है। मैं उसके उत्तरकी प्रतीक्षा करूँगा । भाँगसे अब समझौता नहीं हो सकता। लेकिन तुम स्वयं ही जिस रूपमें परिस्थितियाँ तुम्हारे सामने आयेंगी उन सबका पूरा ध्यान रखते हुए निर्णय कर लोगी ।

हम कल वहाँसे बंगलोर चले आये । और यद्यपि कुछ थकान है जिसका सबब यात्रा नहीं है। नन्दीके पास एक जगह मुझे ठहरना पड़ा, वहाँके लोगोंने मेरे आरामका सब इन्तजाम भी किया था; रक्तचाप बिलकुल नहीं बढ़ा और न ही मुझे यात्राकी थकानका कोई और असर दिखाई दिया। कल डाक्टर आये थे। उन्होंने कहा कि एक महीनेके अन्दर मुझे सामान्य दौरे करने योग्य तो हो जाना चाहिए। हाँ, ताबड़तोड़ गतिसे दौरा करने योग्य भले ही न हो पाऊँ ।

मैंने यहाँका पता पहले ही दे दिया है। कुमार पार्क, बंगलोर सिटी ।

सस्नेह,

तुम्हारा,
बापू

[ पुनश्च : ]

यह पत्र समाप्त करते-करते तुम्हारा तार मिला । तारके लिए मानसिक रूपसे मैं तैयार ही था । मैं तार' दे चुका हूँ कि यदि जमनालालजीकी राय हो तो तुम्हें वालुंजकर और गंगूके साथ साबरमती चले जाना चाहिए और जबतक कोई दूसरी व्यवस्था न हो जाये वालुंजकर से हिन्दी सीखनी चाहिए । अब चूंकि गंगूका तुमसे १. देखिए पिछला शीर्षक ।