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४५८. पत्र : रुस्तमजीको

कुमार पार्क
बंगलोर सिटी
७ जून, १९२७

भाईश्री रुस्तमजी,

आपका तीन तारीखका पत्र आज मिला। और आज ही मैंने समाचारपत्रों में पढ़ा कि मंचरशाहको [१] चार वर्षकी जेलकी सजा दी गई है, किन्तु उसने अभीतक उपवास छोड़ा नहीं है। भाई मंचरशाहमें गुण तो बहुत हैं पर उसमें हठ भी उतना ही है। जिस प्रकार वह आपका कहना नहीं मानता उसी प्रकार वह मेरा भी नहीं मानता। पिछली बार जब मैं नागपुर गया था तब उसके साथ मेरी काफी बातचीत हुई थी। उसे मैंने बहुत समझाया था कि वह उतावली न करे । पर मुझे लगा कि वह किसीकी बात सुननेवाला व्यक्ति नहीं है। लड़के जब बड़े हो जायें तब माँ-बापको उनसे आशा करना छोड़ देना चाहिए। सब अपने-अपने कर्मोके अनुरूप आचरण करते हैं। माँ-बापको मित्रोंकी तरह उन्हें सलाह देनी चाहिए और वे न मानें तो शान्त रहना चाहिए। मेरे भी लड़के बड़े हैं। मेरा सबसे बड़ा लड़का मेरे कहनेमें नहीं है। मैं इस बातको सहन करता हूँ और उसका दुख भी नहीं मानता। आपको इस विचारसे लिख रहा हूँ कि इस बातसे आपको कुछ आश्वासन मिल सकेगा। मुझे अफसोस है कि आपको शान्त रहनेकी सलाह देनेके सिवा मैं और कुछ नहीं कर सकता । आप अपने आपको निराधार किसलिए मानते हैं? जो खुदापर भरोसा करता है वह निराधार नहीं है। लेकिन जो मनुष्यका भरोसा रखता है वह तो सचमुच निराधार है ।

गुजराती (एस० एन० १२८२०) की फोटो-नकलसे ।
  1. मंचरशाह अवारी ।