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४६२. पत्र : मीराबहनको

कुमार पार्क <> बंगलोर ८ जून, १९२७

चि० मीरा,

भ्रष्टाचारसे हमें सिर्फ तुम्हारा तार और पत्र मिले। में अनुद्विग्न हूँ । इस उसी तरह निबटना है जैसे कोई शल्यचिकित्सक उन फोड़ोंसे निबटता है, जो किसी गहरी जमी हुई अन्दरूनी बीमारीके लक्षण-स्वरूप होते हैं। मैंने जमनालालजीको अलगसे पत्र लिखा दिया है। मुझे ऐसा तो लगा ही था कि तुम्हारे पत्रोंसे छेड़छाड़ की जा रही है। लेकिन मैंने उसे भी अच्छा ही माना, क्योंकि यदि उन लोगोंने तुम्हारे पाससे आनेवाले और तुम्हारे पास पहुँचनेवाले पत्रोंको खोल कर देखा है, तो उन्होंने उससे कुछ सीखा ही होगा । मैंने जमनालालजीको सुझाव दिया है कि यद्यपि प्रमुख लोग चले गये हैं, फिर भी आपको अपनी जाँच जारी रखनी चाहिए और व्याधिके मूल स्रोतकी गहराईसे छानबीन करनी चाहिए। हो सकता है कि वे सीधे-सादे लोग हों; निश्चय ही वे मूर्ख तो हैं। यदि उनकी आँखें खोली जा सकती हों, तो तुम्हें यह करना चाहिए और उन्हें यह सलाह देनी चाहिए कि वे आश्रम छोड़ दें -- किसी अन्य बहानेकी आड़में नहीं, वरन् यथासम्भव स्पष्ट रूपसे यह कहकर कि भ्रष्टाचारका पता लगने पर वे आश्रम छोड़ रहे हैं। और तुम जो भी कुछ करो, उसमें जमनालालजीका निर्णय ही अन्तिम हो । वे बहुत ही समझदार हैं, मामलोंकी तहतक पहुँचते हैं, निर्भय और न्यायनिष्ठ हैं; और उन्हें उस संस्थाका और भारतके लोगों तथा भारतकी आम बातोंका तुमसे ज्यादा अनुभव है। इसलिए उनके निर्णयके मुताबिक चलना समझदारीका काम होगा। यदि अन्तिम रूपसे यही तय हो कि तुम्हें तुरन्त आश्रम छोड़ देना चाहिए, तो मैं तुम्हारे लिये, यदि तुम्हारे साथ वालुंजकर और गंगू हैं, तो केवल साबरमती या वर्धा चले जानेकी बात ही सोच सकता हूँ। तुम्हारे आखिरी पत्रके बाद मुझे और भी ऐसा लगता है कि गंगूबहनको तुमसे जबरन् दूर नहीं करना चाहिए। चाहे यह एक संस्थाका मामला हो या एक व्यक्तिका, हमारे आचरणकी संहिता वही है। उसे वैसे ही संरक्षण और देखरेखकी जरूरत है जैसी कि स्वराज्यके पूरे मसलेके लिए; बशर्ते कि उस समय व्यक्तिपर ध्यान देना स्पष्ट कर्त्तव्य हो जाये । १. देखिए पिछला शीर्षक । ३३-३१ Gandhi Heritage Portal