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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस पत्रमें से मैंने ऐसे एक भी वाक्यको नहीं छोड़ा है, जो हमें परिषदके कार्यकी कुछ कल्पना दे सकता हो । फिर भी हमें इसमें एक भी ऐसे कार्यका उल्लेख नहीं दिखाई देता, जो विद्यार्थियोंके लिए स्थायी महत्त्वका हो । मुझे इसमें सन्देह नहीं कि नाटक-संगीत और खेल-कूद आदिके कार्यक्रम अच्छे बड़े पैमानेपर प्रस्तुत किये गये थे। उपर्युक्त शब्दोंको मैंने उस पत्रसे ज्योंका-त्यों अवतरण चिह्नोंके साथ रख दिया है। मुझे इसमें भी सन्देह नहीं है कि इस परिषदमें स्त्री-शिक्षापर आकर्षक निबन्ध पढ़े गये होंगे। परन्तु जहाँतक इस परिपत्रका सवाल है, उसमें लज्जाजनक देने-लेनेकी उस (दहेज) प्रथाका कहीं भी उल्लेख नहीं है, जिससे विद्यार्थियोंने अभी अपने आपको मुक्त नहीं किया है, और यह प्रथा सिन्धी लड़कियोंका जीवन अनेक प्रकारसे नारकीय जीवन बना रही है और उनके माता-पिताका जीवन घोर यातनामय बनाये हुए है। परिपत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे पता चलता हो कि परिषद विद्यार्थियोंके चरित्रका प्रश्न भी हल करना चाहती है। वह परिपत्र कुछ ऐसी बात व्यक्त करता है कि परिषद विद्यार्थियोंको निर्भय राष्ट्र-निर्माता बननेका रास्ता सुझानेके लिए कुछ करनेका इरादा रखती है। सिन्ध कितनी ही संस्थाओंको तेजस्वी प्राध्यापक दे रहा है, यह उसके लिए कोई कम गौरवकी बात नहीं है। पर जो जितना ही ज्यादा देते हैं, उनसे ही और भी ज्यादाकी आशा की जाती है। मैं अपने उन सिन्धी मित्रोंका, जिन्होंने गुजरात विद्यापीठमें मेरे साथ काम करनेके लिए मुझे बढ़िया कार्यकर्त्ता दिये हैं, कृतज्ञ हूँ। लेकिन मैं केवल प्रोफेसर और खादी कार्यकर्त्ता ही पाकर सन्तुष्ट होनेवाला व्यक्ति नहीं हूँ । सिन्धमें साधु वास्वाणी हैं । सिन्ध अपने और भी कितने ही महान् सुधारकोंपर गर्व कर सकता है, परन्तु यदि सिन्धके विद्यार्थी अपने प्रान्तके साधु पुरुषों और सुधारकोंके यशसे ही सन्तुष्ट हो जायेंगे, तो वे भूल करेंगे । उन्हें राष्ट्र-निर्माता बनना है। पश्चिमके निन्दनीय अनुकरणसे शुद्ध और परिमार्जित अंग्रेजी लिख और बोल लेनेसे स्वाधीनताके मन्दिरकी इमारत में एक भी तो ईंट और नहीं जुड़ेगी। विद्यार्थीवर्ग इस समय ऐसी शिक्षा प्राप्त कर रहा है जो भूखे भारतके लिए बहुत ज्यादा मँहगी पड़ रही है। जिसे बहुत ही थोड़े नाममात्र के लोग प्राप्त करनेकी आशा कर सकते हैं। इसलिए भारत विद्यार्थियोंसे आशा करता है कि वे राष्ट्रको अपना खून-पसीना देकर अथक परिश्रम द्वारा अपनेको उसके योग्य बनायें । राष्ट्रमें जो अच्छी बातें हों उनकी रक्षा करते हुए समाजमें घुसी हुई असंख्य बुराइयोंको निर्भयतापूर्वक दूर करते हुए विद्यार्थियोंको धीमी गति से चलनेवाले तमाम सुधारोंके अग्रदूत बन जाना चाहिए ।

ऐसी परिषदोंको चाहिए कि विद्यार्थियोंका ध्यान उनके सामनेके तथ्योंकी ओर दिलायें। उनके परिणामस्वरूप विद्यार्थियोंका ध्यान उन बातोंकी ओर जाना चाहिए जिन बातोंपर विचार करनेका अवसर उन्हें विद्यालयोंमें पाश्चात्य पृष्ठभूमिके कारण नहीं मिल पाता है। सम्भव है कि ऐसी परिषदोंमें वे 'शुद्ध राजनैतिक' समझे जाने- वाले प्रश्नोंपर बहस न कर सकें। पर वे आर्थिक और सामाजिक प्रश्नोंका अध्ययन और उनपर विचार अवश्य कर सकते हैं, और उन्हें करना भी चाहिए। जो