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१७. राष्ट्रीय शालाएँ

बिहार के दौरेमें मैंने ऐसी कई राष्ट्रीय शालाएँ देखी हैं जो विघ्न-बाधाओंके होते हुए भी प्रगति कर रही हैं। मगर मैंने इन शालाओंके आधारपर यह समझ लिया है कि असहयोगके शिक्षा कार्यक्रमकी जो असफलता दिखाई देती है, उसका कारण क्या है कमसे कम मुझे तो इन्हें देखकर इसमें कोई शक नहीं रह जाता कि जिन हजारों लड़कोंने सरकारी स्कूल छोड़े, उनके फिरसे उन्हींमें लौट जानेकी वजह उनकी अपनी या उनके माता-पिताओंकी निर्बलता नहीं थी, बल्कि इसकी वजह थी उन शालाओंके अध्यापकों या प्राध्यापकों में अपने कार्यक्रमके प्रति अपेक्षित सक्रिय विश्वासकी कमी। मगर जैसा कि मैंने कहा है, इसके लिए उन्हें भी बहुत दोष नहीं दिया जा सकता। वे खुद भी तो उसी दूषित शिक्षा-प्रणालीकी उपज थे और उनसे यह आशा नहीं की जा सकती थी कि वे अपनी परिस्थितियोंके सारे प्रभावोंसे एकबारगी ही मुक्त हो सकेंगे। आश्चर्य तो यह है कि भारी विघ्न-बाधाओंके बावजूद कुछ लोग अभीतक अपने आदर्शपर डटे हैं और अपार कठिनाइयोंमें किसी तरह निर्वाह कर रहे हैं। मगर जो थोड़ेसे लोग अभीतक डटे हुए हैं उनसे में बिलकुल सच्चा रहनेकी हार्दिक अपील करता हूँ। असहयोगकी हर शाखाके ध्वंसात्मक और रचनात्मक दोनों ही पहलू हैं। रचनात्मक पहलू ही वास्तवमें अधिक स्थायी है। इसके बिना ध्वंसात्मक पहलू निरर्थक ही है। अगर सरकारी स्कूलोंको छोड़नेके साथ-साथ शिक्षाका कोई अन्य रचनात्मक कार्यक्रम नहीं होता तो सरकारी स्कूलोंको केवल छोड़ देनेका तो कोई अर्थ ही नहीं है। प्रत्येक शाला केवल इस कारण कि वह सरकारसे सम्बद्ध नहीं है और सरकारी सहायता नहीं लेती, राष्ट्रीय नहीं हो जाती। अगर केवल सरकारसे सम्बद्ध न होना और सहायता न पाना ही एकमात्र कसौटी हो तो फिर हजारों मिशन स्कूलोंको राष्ट्रीय शाला माना जा सकता है। हमारे सामने कांग्रेसकी राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओंकी परिभाषा मौजूद है। उस परिभाषामें अन्य मुख्य बातोंके साथ-साथ कताई एक अनिवार्य विषय है। बिहारकी एक राष्ट्रीय शाला में मैंने देखा कि चरखे वहाँ केवल दिखावेके लिए ही रखे गये हैं और उनपर जब-तब लापरवाहीसे कुछ सूत काता जाता है; शिक्षक खुद भी लापरवाह कतैये हैं। धुनना वे जानते ही नहीं। अच्छे और बुरे चरखेकी उन्हें पहचान नहीं थी। सीधे तकुएके गुण भी उन्हें मालूम न थे। उन्हें इसका पता ही नहीं था कि अगर महीन और अधिक सूत कातना हो तो अच्छे तकुएकी आवश्यकता होती है। मैंने जितने चरखे देखे करीब-करीब उन सभीसे एक अजीब-सी कर्कश ध्वनि निकलती थी। मैंने एक शालाके प्रधानाध्यापकसे बारीकीके साथ सवाल किये और उन्होंने सारे दोष साहस-पूर्वक स्वीकार किये तथा उन्हें दूर करनेका वचन दिया। इस ज्ञानवर्धक अनुभवसे मैं यह शिक्षा लेना चाहता हूँ कि अगर राष्ट्रीय शालाओंके शिक्षकोंको अपना दुहरा हक साबित करना है तो उन्हें अपने कथनके अनुसार चलना होगा; यानी सच्चा