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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

उसके बाद उन्होंने सभी असहयोगी संस्थाओंके भावात्मक तथा निषेधात्मक पहलुओंका ब्यौरा दिया। निषेधात्मक पहलू जिसमें सरकारसे सब तरहका सम्बन्ध-विच्छेद भी शामिल है—सभी वर्तमान संस्थाओं द्वारा निष्पन्न हो चुका है। जिन विद्यार्थियों एवं अध्यापकोंने मेरी पुकार सुनी, जब में उनकी संख्या देखता हूँ तो मुझे रत्तीभर भी खेद नहीं होता। इस बातका भी मुझे पश्चात्ताप नहीं है कि उनमेंसे बहुत से वापस चले गये हैं और बहुतसे असन्तुष्ट एवं नाराज हैं। मुझे उनके लिए दुःख तो होता है, मुझे उनके प्रति गहरी सहानुभूति है—परन्तु मुझे इसपर कोई खेद या पश्चात्ताप नहीं है।


ये परेशानियाँ और दुःख नित्य ही हमारे भाग्य में हैं—इन्हें हमारे भाग्य में नित्य होना ही चाहिए। यदि सत्यका पालन सुखकी अवस्थाका द्योतक हो, यदि सत्यकी कोई कीमत न चुकानी पड़े, और यदि सत्यपालनसे केवल सुख और आराम मिले, तो उसकी शोभा ही समाप्त हो जाये। आकाश भले ही सिरपर टूट पड़े, हमें सत्यका पालन करना नहीं छोड़ना चाहिए। सत्यका पालन करनेमें यदि हमें भारत-समेत सारे संसारसे हाथ धोना पड़े तो भी कोई बात नहीं। मृत्युपर्यन्त सत्यका पालन करते रहनेपर ही हम सत्यके सच्चे उपासक बनेंगे। हमें यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि हम ईश्वरके शासनमें, भारत तथा उन सब वस्तुओंको, जो हमें प्रिय हैं, फिरसे प्राप्त कर लेंगे। मैं जानता हूँ कि हमारे अध्यापकों एवं प्रोफेसरोंमेंसे बहुतसे परेशान हैं, कुछएक भूखों भर रहे हैं। राष्ट्रीय वातावरणकी उपयुक्त शुद्धिके लिए इस तरहकी सच्ची तपस्या अनिवार्य है।

यह इन संस्थाओंका नकारात्मक पहलू है। मुझे प्रसन्नता है कि इसे निभाया गया है और तपस्याका अधिकांश भाग पूरा हो चुका है। परन्तु इस द्विविधात्मक संसारका दूसरा भावात्मक पहलू भी है। यह ज्यादा स्थायी तो है; किन्तु साथ ही यह ज्यादा कठिन भी है। यह पहलू विद्यापीठ जैसी संस्थाओंको छोड़कर अन्यत्र कहाँ निष्पन्न किया जा सकता है? फिर गांधीजीने यूरोप एवं भारतमें अपनाई गई शिक्षा पद्धतिको विषमताको ओर ध्यान दिलाया। उन्होंने कहा:


यूरोप में व्यक्तिकी विशेष प्रतिभाको ध्यान में रखकर शिक्षा दी जाती है। एक ही बात तीन विभिन्न देशों में अपने-अपने देशकी संस्कृति एवं प्रतिभाको ध्यान में रखकर तीन विभिन्न तरीकोंसे सिखाई जाती है। केवल हम लोग ही अंग्रेजोंकी पद्धतिका अन्धाधुन्ध अनुकरण करनेमें आनन्द मानते हैं। वर्तमान प्रणालीका उद्देश्य ही इतना है कि हम पश्चिमकी हू-ब-हू नकल करें। इसमें अजीब भी कुछ नहीं है। हमने अपने मामले उन अंग्रेजोंके सुपुर्द कर रखे हैं, जिन्होंने कभी हमें जानने की कोशिश नहीं की; यह उसका स्वाभाविक परिणाम है। बेचारा मैकॉले! वह क्या कर सकता था! वह हृदयसे विश्वास करता था कि हमारा संस्कृत-साहित्य अन्धविश्वासोंसे भरा। वह वास्तव में यही सोचता था कि पश्चिमी संस्कृतिके रूपमें वह हमें कुछ पथ्य दे रहा है। इस तरह मैकॉलेने अनजाने जो हमारा विनाश किया, उसके लिए हम उसे भला-