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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पिंजरोंमें बन्द हैं, तबतक उनसे और किसी बातकी आशा कैसे की जा सकती है? इसलिए जब वे किसी बड़े कमरेमें इकट्ठी होती हैं और उनसे एकाएक यह आशा की जाती है कि वे किसी वक्ताका भाषण सुनें, तब उनकी समझमें नहीं आता कि उन्हें स्वयं अपने या वक्ताके ख्यालसे क्या करना चाहिए और शान्ति स्थापित हो जानेके बाद भी उनके मनमें रोज घटनेवाली साधारण घटनाओं तथा विषयोंके प्रति रुचि पैदा करना वक्ताको कठिन मालूम पड़ता है, क्योंकि उन्हें कभी स्वतन्त्रताकी शुद्ध वायुमें साँस लेनेका अवसर ही नहीं दिया गया है और इसलिए वे उन विषयोंसे नितान्त अपरिचित रही हैं। मैं जानता हूँ कि यह चित्रण कुछ अतिरंजित है। मैं इन हजारों बहनोंकी, जिनके सम्मुख मुझे बोलनेका अवसर मिलता है, उच्च संस्कृतिको भली-भाँति जानता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि वे पुरुषोंके बराबर ही ऊँचा उठ सकती हैं। उन्हें बाहर आनेका अवसर भी मिलता है। मगर इसका श्रेय शिक्षित वर्गको नहीं दिया जा सकता। सवाल यह है कि वे इससे भी आगे क्यों नहीं बढ़ी हैं, हमारी स्त्रियोंको भी वह स्वतन्त्रता क्यों नहीं प्राप्त है जो पुरुषोंको प्राप्त है और वे घरके बाहर निकलने तथा शुद्ध वायुका सेवन करनेसे वंचित क्यों रखी जाती हैं।

सतीत्व कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे पालके आमोंकी तरह दाबदूबकर रखनेसे परिपक्व किया जा सकता हो। उसे ऊपरसे नहीं लादा जा सकता। उसकी रक्षा पर्देकी दीवारसे नहीं की जा सकती। उसका विकास तो भीतरसे ही होना चाहिए और अवश्य ही उसका मूल्य तभी कुछ माना जायेगा जब वह सभी प्रकारके अवांछित आकर्षणोंका सामना करने योग्य बन जाये। वह तो सीताजीके सतीत्वकी भाँति अडिग और अजेय होगा। जो पवित्रता पुरुषोंकी ताक-झाँकका सामना न कर सके वह अवश्य ही कोई बहुत निकम्मी-सी चीज होगी। अगर मर्दोको मर्द होना है तो उन्हें इस लायक बनना होगा कि वे स्त्रियोंका वैसा ही विश्वास कर सकें, जैसा स्त्रियोंको मजबूरन उनका करना पड़ता है। ऐसा नहीं होने देना चाहिए कि जीवनमें हमारा एक अंग पूर्णतः या अंशतः निकम्मा बना रहे, अगर सीता भी राम जैसी स्वतन्त्र और स्वाधीन न होतीं, तो रामकी क्या स्थिति होती? मगर निर्भीक स्वातन्त्र्यके लिहाजसे द्रौपदीका उदाहरण शायद ज्यादा माकूल होगा। सीता विनम्रताकी मूर्ति थीं। वे मंजु सुकोमल सुमन थीं। द्रौपदी विशाल विटप जैसी थीं। उनकी अदम्य इच्छा-शक्तिके आगे शक्तिशाली भीम भी झुक गये थे। भीम सबके लिए व्याघ्र थे, परन्तु द्रौपदीके लिए मेमनेथे। द्रौपदीको किसी पाण्डवके संरक्षणकी जरूरत न थी। हम आज भारतकी नारियोंके निर्विघ्न विकासका विरोध करके भारतमें स्वतन्त्रताप्रिय और स्वाधीन वृत्तिके पुरुषोंके विकासको रोक रहे हैं। हम अपनी स्त्रियों और अछूतोंके प्रति जैसा व्यवहार करते हैं, वह हजार गुना होकर हमारे सिरपर वापस आता है। हमारी निर्बलता, अनिश्चितता, संकीर्णता और बेबसीका अंशतः यही कारण है। इसलिए आइए हम एक महान प्रयत्न करके इस पर्दको समाप्त कर दें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-२-१९२७