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४१. भाषण: चाँदामें[१]

४ फरवरी, १९२७

भला इन मालाओंका मैं क्या करूँ? यह समय मालाएँ पहन कर निकलनेका नहीं है। यह समय दूध वगैरा ऐसी चीजें खानेका भी नहीं है जो गरीबोंको नसीब नहीं होतीं। मैंने कितनी ही बार सोचा है कि मैं देशकी गरीब और भूखों मरनेवाली स्त्रियोंके खातिर दूध पीना भी छोड़ दूँ। मगर मैंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि ऐसा करना आत्महत्या करना ही होता। अनिच्छापूर्वक ही क्यों न हो मुझे दूध पीना पड़ रहा है, क्योंकि जबतक ईश्वरको अभीष्ट है, मुझे उनकी यथाशक्ति सेवा करनेके लिए जिन्दा रहना है। इसलिए आप कृपया मालाएँ खरीदनेमें रुपया बरबाद न करें। क्योंकि माला न खरीदकर बचाये गये हर रुपयेसे आप १६ स्त्रियोंको एक वक्तका भोजन दे सकते हैं। क्या हमें उन गरीबोंका रोदन सुनकर लज्जाका अनुभव नहीं होता जिनकी मेहनत-मशक्कत की बदौलत हम जीते हैं और जिनकी जोती-बोई धरतीसे हमें भोजन प्राप्त होता है? अगर आप उनकी बनाई खादी न भी पहन सकें तो यही बेहतर होगा कि आप 'लोकमान्यकी जय' के नारे लगाना बन्द कर दें। उनका नाम लेनेके पहले उनकी जैसी निष्ठा प्रदर्शित करें, उनका कुछ काम करें, उनके दिलमें गरीबोंके प्रति जो अथाह प्रेम था, उस प्रेमका शतांश ही आप अपने कार्यों द्वारा व्यक्त करके दिखायें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १७-२-१९२७

४२. भेंट: शापुरजी सकलातवालासे[२]

यवतमाल
[५ फरवरी, १९२७][३]

साम्राज्यवाद समाप्त ही किया जाना चाहिए। जब चीन, रूस, मैक्सिको और अन्य देश सफलता पा रहे हैं, तो हमें क्यों नहीं सफलता मिलेगी? अगर हम भी उनके साथ सहयोग करें, तो हमारी आवाज भी सुनी जायेगी। अगर हमारे पास दस लाख कार्यकर्त्ताओंका एक संगठन हो, तो हम जो भी चाहें, कर सकेंगे। मतभेद तो होंगे। हिन्दुओं और मुसलमानोंको भी झगड़नेका हक है। अन्य देश भी स्वतन्त्रताका सुख

  1. महादेव देसाईंकी "साप्ताहिक चिठ्ठी" से।
  2. इस भेंटका विवरण नवजीवन, १३-२-१९२७ में भी छपा था, और उसी दिन अहमदाबादसे फ्री प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था।
  3. इस तारीखको गांधीजी यवतमालमें थे।