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४५. पत्र: मगनलाल गांधीको[१]

[६ फरवरी, १९२७][२]

...आ गई है। किन्तु धर्मके मामलेमें भला कहीं जोर-जबरदस्ती चलती है? धर्मका बन्धन उसीके लिए है जो उसे समझता है। हम तो दूसरेको समझाकर ही अपना कर्त्तव्य पूरा हुआ समझें।

रामचन्द्रने लिफ्टके बारेमें रेवाशंकर भाईको लिखा है। तुम पाँच हजार रुपये मँगा लेना और बाकी रकम आश्रमके खातेमें से निकाल लेना। यदि लिफ्ट हमारे लिए उपयोगी सिद्ध हुई तो उससे हमारी लागत निकल आयेगी। पेटेन्टके बारेमें क्या हुआ? क्या तुमने उन्हें उत्तर दे दिया?... गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ७७७४-ए) से।

सौजन्य: राधाबहन चौधरी

४६. भाषण: अस्पृश्यतापर, अकोलामें[३]

६ फरवरी, १९२७

अस्पृश्यता-विषयक मेरे विचार, मेरी पाश्चात्य शिक्षाकी देन नहीं हैं। मेरे ये विचार इंग्लैंड जानेसे बहुत दिन पूर्व, शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे भी बहुत पहले, एक ऐसे वातावरणमें बन चुके थे जो इनके लिए अनुकूल न था; क्योंकि मेरा जन्म एक कट्टर वैष्णव परिवारमें हुआ था। फिर भी बालिग होनेके समयसे ही उस सम्बन्धमें मैं अपने इन पक्के विचारोंपर दृढ़ रहा हूँ। बादमें हिन्दू धर्मग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययन तथा अनुभवसे उत्पन्न मेरे ये विचार और भी दृढ़ हो गये हैं। मेरी समझमें नहीं आता कि जब शास्त्रोंमें पंचम वर्णका कहीं भी उल्लेख नहीं है और 'गीता 'में ब्राह्मण और भंगीको समान माननेकी स्पष्ट आज्ञा है, तब भी हम हिन्दू धर्मके मस्तकपर लगे इस कलंकको कायम रखनेकी जिद क्यों पकड़े हुए हैं? भंगी और ब्राह्मणको एक समान माननेका अर्थ यह नहीं है कि सच्चे ब्राह्मणके प्रति हम यथोचित श्रद्धा न रखें, उसका तो यह अर्थ है कि भंगीको भी अन्य हिन्दुओंकी भाँति हमसे वही सेवा पानेका हक है जो ब्राह्मणको है, वह भी सार्वजनिक शालाओंमें अपने लड़के

  1. पत्रका प्रारम्भिक तथा अन्तिम अंश उपलब्ध नहीं है।
  2. मूल पत्र हाथसे बने रेशमी कागजपर है; गांधीजीने तुलसी मेहरसे यह कागज प्राप्त होनेकी बात कही है। देखिए पिछला शीर्षक।
  3. महादेव देसाईकी "साप्ताहिक चिट्ठी" से।