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पत्र: मीराबहनको

  उसी तरह भेज सकता है, सार्वजनिक कुओंसे उसी तरह पानी भर सकता है और मन्दिरोंमें जाकर उसी तरह देव-दर्शन कर सकता है जैसे कोई भी अन्य हिन्दू। श्रद्धानन्दजीने अछूतोंकी ही सेवामें अपनी जिन्दगीका सबसे ज्यादा हिस्सा गुजारा। इन्हीं दलितोंकी सेवामें उनका मन बसा था और वे इन्हींके बीच रहते और काम करते थे। जो वृत्ति एक बिलकुल अधार्मिक प्रथाको अब भी धार्मिक ही मानती चली जा रही है, मैं उसके बारेमें क्या कहूँ? इसलिए आइये, हम अपने हृदयोंको टटोलें और उनमेंसे संकीर्णताको पूर्णतः निकाल दें। हम समझ लें कि दक्षिण आफ्रिकामें हम भारतीयोंको जो सजा भोगनी पड़ रही वह हमारे ही पापोंका उचित प्रतिफल है, और दक्षिण आफ्रिकाके गोरे हमारे भाइयोंके साथ जो व्यवहार करते हैं उससे अपने भाइयोंके साथ किया जानेवाला हमारा व्यवहार कुछ कम बुरा नहीं है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १७-२-१९२७

४७. पत्र: मीराबहनको

दुबारा नहीं पढ़ा

७ फरवरी, १९२७

चि॰ मीरा,

यह पत्र नेपालसे तुलसी मेहर द्वारा भेजे गये हाथके बने कागजपर लिखा है। वह फिर हम लोगोंके साथ यहाँ है। यह घर किशोरलालके भाईका है। उनकी पत्नी इन दिनों बीमार हैं। वह अब भी बिस्तरपर ही हैं, लेकिन अब कोई खतरेकी बात नहीं है। यहाँपर मैं कई पुराने परिचित लोगोंको देख रहा हूँ। कल सुबह हम यहाँसे रवाना हो रहे हैं। [दौरेकी] तारीखें इस प्रकार हैं:

९ भुसावल
१२ अमलनेर
१० जलगाँव
१३-१४ धूलिया
११ चोपड़ा
 

इसके आगेका अभी कुछ मालूम नहीं है।

शपथके[१] बारेमें तुम्हारा पत्र मिला है। सब्जियों और फलोंके बारेमें तुम जो अर्थ निकालती हो, उसपर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। स्मरण रहे कि शपथको केवल कमसे-कम सीमातक नहीं बल्कि अधिकसे-अधिक सीमातक निबाहना चाहिए। व्यक्ति सदैव सीमा रेखाके करीब रहनेका नहीं वरन् सीमा रेखासे काफी अन्दर रहनेका प्रयत्न करेगा। खैर, शपथकी अवधि कम है, इसलिए इस सबसे कुछ खास फर्क नहीं पड़ता।

  1. देखिए "पत्र: मीराबहनको" ३१-१-१९२७।