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४९. पत्र: मगनलाल गांधीको

अकोला
मौनवार, [७ फरवरी, १९२७]

चि॰ मगनलाल,

तुम्हारा पत्र, राधाका पत्र और दूसरे पत्र मिले। उनसे रुखीके समाचार जाने। अब उसकी चिन्ता करनेकी कोई जरूरत ही नहीं रहती। हम लोग डाक्टर और अन्य लोगोंकी सेवाओंके जबर्दस्त बोझसे दबे हुए हैं। इसका बदला हम पैसा देकर नहीं चुका सकते। फूल नहीं तो पंखुरी, यदि इस दृष्टिसे भी हम कुछ देनेका विचार करें तो वह भी पाप ही होगा। इसका बदला तो हम सब तभी चुका सकते हैं जब हम सबमें धार्मिक चेतना प्रबुद्ध हो। यह बात हम अपने नवयुवकों और नवयुवतियोंको किस तरह समझा सकते हैं? यदि हम गृहस्थ होते तो सन्तोककी सारी जमा-पूँजी ऐसी एक ही बीमारीमें खर्च जाती। लेकिन हमारे यहाँ तो बीमारोंका ढेर लगा रहता है। सन्तोक जिन्हें अपना मानती है उनमें भी क्या कम लोग बीमार हैं...।[१]

मुझे उम्मीद है कि इन सब बातोंका ठीक-ठीक अलग-अलग हिसाब रखा जाता होगा, रखा जाना चाहिए। यदि भाड़ा आदि सारी मदें बिलकुल ठीक-ठीक चढ़ाई जाती हों तो मैं कहूँगा कि हिसाब बराबर रखा जाता है। देखता हूँ कि तुम बहुत बोझ उठा रहे हो। यह किस तरह हल्का किया जाये अथवा किया जा सकता है, यह तो तुम ही जानो। बीजापुरका क्या है? हमारे यहाँ कितनी खादी पड़ी है? सर गंगारामके लिए खेतीके बारेमें टिप्पणी तुरन्त तैयार करना। उनका एक और पत्र आया है।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च:]

राधाको अभी मुझसे अलग पत्रकी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए; फिर भी उसे खुद तो लिखते ही रहना चाहिए।

गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ७७७४) से।

सौजन्य: राधाबहन चौधरी

  1. साधन-सूत्रमें यहाँ कुछ छूटा हुआ है।