६९.पत्र : तारा मोदीको
बंगलोर
ज्येष्ठ बदी १३, [ २७ जून, १९२७][१]
चि० तारा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे बहुत खुशी हुई। तुम्हें पढ़ने के परिश्रमसे बचानेके लिए ही मैंने पत्र नहीं लिखा था । किन्तु मुझे तुम्हारा ध्यान तो रहता ही है। मैं तुम्हें तन-मनसे हृष्ट-पुष्ट देखना चाहता हूँ । तुम जैसे कठोर व्रतका पालन कर रही हो वैसे कठोर व्रतका पालन जो अपनी युवावस्था में करता है उसे तो रोग होना ही नहीं चाहिए। किन्तु हृदयको इतना स्वच्छ बनाने में युग बीत जाते हैं। यदि पूर्वजन्मके संस्कार हों तो विचारोंके साथ ही हृदय परिवर्तन हो जाता है । न हो तो उसके होनेतक हमें धैर्यपूर्वक तथा अथक प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
यह मेरा अनुभव और दृढ़ विश्वास है कि जिसके मनकी गति स्वाभाविक रूपसे निरन्तर आत्माकी ओर बनी रहती है उसे रोग होते ही नहीं । यों मेरा अनुभव तो स्वल्प ही है किन्तु अल्प द्वारा पूर्णके आकारकी कल्पना की जा सकती है ।
फिलहाल तो तुम्हारा जो इलाज चल रहा है उसे धीरजके साथ चलाती रहो और अच्छी हो जाओ। इलाज करनेवाले भाई कौन हैं, वे कितने अनुभवी हैं आदि बातोंके बारेमें तुम जो कुछ जानती हो, मुझे लिखना । चलने-फिरनेकी उतावली मत करना और जैसा वे कहें वैसा ही करना ।
जब तुम्हें लिखनेकी इच्छा हो और तुममें उतनी शक्ति हो तभी मुझे लिखना । मेरी तबीयत सुधरती जा रही है। प्रदर्शनीके सिलसिले में आश्रमसे मणिबहन तथा केशू आ गये हैं । अन्य लोगोंके [ कल ][२] पहुँचनेकी सम्भावना है।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती (सी० डब्ल्यू० १९४०) से
सौजन्य : रमणीकलाल मोदी