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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आदर्शकी चर्चा किये बिना, आश्रममें जितनी बहनें जहाँ-तहाँ रह रही हैं यदि वे सब एक साथ रहने लगें तो यह माना जायेगा कि हमने एक बड़ा मोर्चा मार लिया । अहिंसाका मार्ग अन्य सभी मार्गोंकी अपेक्षा कठिन है । सत्य, मार्ग नहीं, वह तो ध्येय है । वहाँतक पहुँचनेका एकमात्र मार्ग अहिंसा है । अतः यह आसान हो भी कैसे सकता है ? अभी तो हम विचारोंकी अहिसातक भी नहीं पहुँच सके हैं। कभी- कभी जब हमें अपना धर्म दीपककी भाँति स्पष्ट दिखाई देता है तब भी उसका पालन करनेकी शक्ति भी हममें नहीं होती । ऐसी स्थितिमें इतना ही बहुत है कि यथा- शक्ति आचार और विचारमें अहिंसाकी रक्षा करें और आनन्दसे रहें। यदि 'गीता' का उपदेश सही हो तो उसका अनुवाद करते हुए मुझे उसमें से यही अर्थ निकलता मालूम होता है । . . .[१] दूसरोंके दोष न देखने में ही तो अपने दोषोंको देखनेकी बात निहित है । हमें दूसरोंमें जो दोष दिखाई देते हैं वे एक समय हममें भी थे और एक प्रकारसे आज भी हैं। अपने और परायेके भेदको भूलनेकी चेष्टा करते हुए ही तो सूरदास आदि कवियोंने अपनेको कुटिल[२] आदि माना है ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।

सौजन्य : नारायण देसाई

६६. पत्र : सुरेन्द्रको

बंगलोर

ज्येष्ठ वदी १४ [ २८ जून, १९२७][३]

६६. पत्र : सुरेन्द्रको बंगलोर चि० सुरेन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला। काकासाहबको मैंने एक लम्बा पत्र लिखा है । वे क्यों चिन्ता करते हैं, यह में समझ ही नहीं पाता । लक्ष्मीदासने अपने खादी-प्रचार सम्बन्धी नये विचार अभीतक तो मुझे नहीं बताये हैं। आसनोंके सम्बन्धमें मैंने किशोरलालको लिखा है और वे नाथजीसे विचार-विमर्श करके उसके बारेमें मुझे लिखेंगे। मैं चाहता हूँ कि तुमने जो-जो संस्थाएँ देखीं उनके बारेमें अपने अनुभव तुम मुझे लिखो । जैसे कि सासवड़में तुमने क्या देखा ? सूपामें क्या देखा ? इनमें हर जगह हमारे ग्रहण करने लायक क्या-क्या देखने में आया ? जहाँतक हो सके हमें तो गुणग्राही बनना है, अतः जहाँ-कहीं हमें कोई अच्छी चीज दिखाई पड़े हमें उससे प्रसन्न होना चाहिए और उसका अनुकरण करना चाहिए। यदि कोई दोष दिखाई पड़े तो उसे सहन करना

  1. साधन-सूत्रमें इसी प्रकार दिया गया है।
  2. मो समकौन कुटिल खल कामा ।
  3. सन् १९२७ में इस दिन गांधीजी बंगलोर में थे ।