पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

७१. पत्र : अलवीको

२९ जून,१९२७

तुम्हारा सहज-सरल भावसे लिखा पत्र[१] मिला । उक्त पत्र तुमने लिखा तो सम्पादकके नाम है किन्तु मैं उसका उत्तर 'नवजीवन' द्वारा नहीं दूंगा क्योंकि तुम्हारे मनमें जो शंका उठी है उसका बहुतसे लोगोंके मन में उठना सम्भव नहीं जान पड़ता । तुम्हारे पत्रसे मुझे सन्देह होता है कि तुमने 'गीता' का गहरा अध्ययन नहीं किया है । निष्काम कर्म और तटस्थ (भावसे किये जानेवाले) कर्ममें भेद नहीं है । तुमने ऐसा मान लिया है कि परोपकारका कार्य निष्काम कर्म ही होता है । किन्तु निष्कामता और परोपकार ये दो अलग-अलग गुण हैं । इस जगत् में परोपकारके सम्बन्धमें जगह- जगह आसक्तिका भाव दिखाई पड़ता है और इसी कारण परोपकारके नामपर अग- णित पाप होते रहते हैं, हुए हैं और होते रहेंगे। मुझे 'गीता' अच्छी लगती है, इसका कारण यही है कि ग्रंथके अलौकिक कर्त्ताने स्वानुभवसे इस भेदको जान लिया था और सूक्ष्मतापूर्वक बारम्बार अलग-अलग शब्दोंमें तथा उन्हीं मूल शब्दोंमें भी इस बातको 'गीता' में स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है। निरामिषाहारके प्रचारमें सहायता करनेमें मेरा तो कोई स्वार्थ नहीं था किन्तु इसके बावजूद मैंने उसे भगवान्का कार्य माननेकी बजाय अपना काम मान लिया । और जहाँ ममताका भाव आया वहाँ तटस्थता कहाँ रही, निष्कामता कहाँ रही ? उस कामको मैंने अपना माना इसी कारण मैंने उस काममें मुवक्किलके पैसे लगा देनेकी धृष्टता की। आज में यह स्पष्ट देख पा रहा हूँ कि ऐसा करने में सकामता थी, आसक्ति थी । खादी-कार्य तो परोपकारका ही काम है न ? मान लो तुम्हारे पैसे मेरे पास पड़े हैं और मेरे मनमें उन्हें लौटा देनेकी इच्छा भी है। अब यदि मैं बिना किसी आसक्तिके खादीका प्रचार कर रहा होऊँ तो उन पैसों को तुरत लौटानेकी सामर्थ्य होते हुए भी में इस कार्यमें कदाचित् तुम्हारे पैसोंका उपयोग नहीं करूँगा । केवल खादी-प्रचारके लिए मिले हुए पैसोंसे खादीका व्यापार करना ही मेरा धर्म है और जहाँतक निष्काम भावसे तथा तटस्थता- पूर्वक यह काम किया जा सकता है वहाँतक तो मैं इसमें दूसरे पैसोंका उपयोग कभी नहीं करूँगा । अब तो तुम समझ गये होगे कि में उक्त मामलेमें किस प्रकार अपनी तटस्थतासे डिगा । यदि मैंने अपने ही पैसे दिये होते तो कोई उलझन नहीं थी । तटस्थ रहने का तात्पर्य सहायता न करना नहीं है । जहाँ सहायता करना आवश्यक जान पड़े वहाँ यदि सामर्थ्य हो तो अवश्य सहायता करनी चाहिए। किन्तु दूसरोंके साधनोंका बिना उनकी अनुमतिके उपयोग नहीं किया जा सकता तथा अनुमति लेनेमें भी विवेकसे तो काम लेना ही चाहिए। हालाँकि मैंने स्वर्गीय भाई बद्रीकी अनुमति

  1. इसमें पत्र-लेखकने गांधीजीसे पूछा था कि उन्होंने आत्मकथामें बद्रीका अपने पास पड़ा हुआ पैसा निरामिषाहारके प्रचार में लगा देनेके अपने कार्यको निष्कामता और तटस्थतासे रहित क्यों माना है।