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पत्र : जगमोहन डाह्याभाईको

ली थी किन्तु मैं उसे अनुमति नहीं मानता । क्योंकि वे स्वतन्त्रतापूर्वक सोचने-विचारने और अपने अभिप्रायको व्यक्त करनेमें असमर्थ थे । उन्होंने केवल मुझपर विश्वास करके ही अपनी स्वीकृति दी थी और सो भी निश्चित रूपसे यह समझकर कि मैं उनके पैसोंका दुरुपयोग होने ही नहीं दूंगा। ऐसी स्थितिमें उनके पैसोंको जरा भी जोखिम में डालना मेरा धर्म नहीं था। इतनेपर भी यदि न समझे हो तो मुझे लिखना ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी से ।

सौजन्य : नारायण देसाई

७२. पत्र : जगमोहन डाह्याभाईको

२९ जून,१९२७

नीरोग माताके दूधमें वे सभी तत्त्व होते हैं जो कि शिशुके लिए आवश्यक हैं । शिशुके लिए माताका दूध परिपूर्ण खुराक है । इसलिए उसे फलोंका रस देनेकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है । कभी-कभी फलोंका रस देना आवश्यक हो जाता है, उसका कारण यह है कि वहाँ माता संयमी नहीं होती, वह अपनी जीभको वशमें नहीं रख पाती या फिर वह किसी रोगसे पीड़ित होती है जिससे उसका दूध सर्वथा सात्विक या शक्तिप्रद नहीं रह जाता। इसलिए में तुम्हें यही सलाह देता हूँ कि यदि शिशु स्वस्थ रहता हो और दिनों-दिन उसकी शक्ति बढ़ती हुई नजर आती हो तो उसे दूधके अतिरिक्त और कोई चीज देनेकी आवश्यकता नहीं, किन्तु यदि शिशु रोये, वह सूखता जाये या ऐसा लगे कि उसके लायक पूरा दूध नहीं उतरता है तो मीठी नारंगी या ताजे अंगूरोंका रस थोड़ी मात्रामें अवश्य दिया जा सकता है।

जो वाक्य मैंने अपनी पुस्तकसे उद्धृत किये हैं वे दो या तीन महीनेके शिशु- पर लागू नहीं होते । किन्तु जब बालक बैठने लायक हो जाये, अपने हाथ-पाँव भली- भाँति चलाने लगे तथा उसके मसूड़े कुछ मजबूत हो गये हों और माताका दूध पी लेनेके बाद भी उसकी भूख न मिटती हो, उस समय उसे ताजे फल खिलानेकी आदत डालना ठीक होगा। संक्षेपमें, पहले उसे दूध देना चाहिए और उसके बाद फल देना आरम्भ करना चाहिए।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी से ।

सौजन्य : नारायण देसाई