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७३. पत्र : फूलचन्द शाहको

[२९ जून, १९२७ के पश्चात्][१]

मेरी सलाह है कि तुम और देवचन्द भाई परिषद्का कारोबार अपने पास रखने का आग्रह मत करो। और यदि तुम दोनोंको खादी, अन्त्यज-सेवा, राष्ट्रीय शिक्षा आदि रचनात्मक कार्योंके अतिरिक्त अन्य प्रवृत्तियोंमें भी रस हो और तुममें सामर्थ्य हो तो इस कामकी जिम्मेवारी अवश्य ले लेना और जो उचित हो सो करना । स्वयं मुझे तो उपर्युक्त प्रवृत्तियों तथा गोरक्षा आदि कार्योंके अतिरिक्त राजनीतिक प्रवृत्ति में न तो अब रस मिलता है और न उसे करनेकी मुझमें सामर्थ्य ही है। इसलिए मैं दूर बैठा हुआ उसे देखता-भर रहता हूँ । इस सम्बन्धमें यदि कोई बात उठाता है तो उससे थोड़ी-बहुत चर्चा कर लेता हूँ और जहाँ लिखे बिना काम ही नहीं चलता वहाँ कुछ लिख भी देता हूँ । बाकी तो मैं बिलकुल तटस्थ रहता हूँ ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी से ।

सौजन्य : नारायण देसाई

७४. हमारा कलंक

श्रीयुत एस० डी० नाडकर्णी जो कुछ लिखते हैं, बहुत साफ ढंगसे लिखते हैं, और उनके हृदयमें अस्पृश्योंके लिए बहुत स्थान है । अन्यत्र में उनका एक पत्र[२] शब्दशः छाप रहा हूँ। उसमें उन्होंने दलित वर्गोंके प्रति समस्त संवेदना उँडेल दी है । और सवर्णो- के प्रति अपने मनका क्षोभ निकालनेके लिए उन्होंने मुझपर प्रहार किया है, सो बिल- कुल उचित ही किया है। मैं अपने प्रति उनके इस रोष का खयाल न करूँ तो भी मुझे लगता है कि अपनी तीव्र भावनासे वे इतने अभिभूत हो गये हैं कि वे यहाँ उस तर्क-बुद्धिको भी खो बैठे हैं, जो आम तौरपर बराबर उनका साथ देती है । मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि यद्यपि अस्पृश्योंका प्रश्न एक विकट प्रश्न है, फिर भी न तो बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीकी बैठक और न एकता सम्मेलन ही इस विषयपर विचार करनेका उपयुक्त स्थान था । एकता सम्मेलन तो सिर्फ हिन्दू- मुस्लिम एकता के प्रश्नपर ही विचार करनेके लिए बुलाया गया था। अगर कहें कि इन बैठकोंमें अस्पृश्यताकी समस्यापर विचार किया जा सकता था तब तो वहाँ,

  1. साधन-सूत्र में यह पत्र २९-६-१९२७ के बाद दिया गया है।
  2. २८ मई, १९२७ का पत्र ।