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बंगलोर खादी-प्रदर्शनी

उसका कर्तव्य है, लेकिन फिर भी इस बातपर कभी कोई नहीं हँसा कि हिन्दू-मुस्लिम एकताका जबरदस्त राजनीतिक महत्त्व है । न मैंने कोई ऐसा आदमी ही देखा है जो इस एकताको बढ़ावा देनेके आन्दोलनसे इस कारण अलग खड़ा हो कि इसका जबरदस्त राजनीतिक महत्त्व है। वास्तविकता यह है कि खादीकी पूर्ण सफलता और तज्जनित राजनीतिक प्रभाव सभीके सहयोग तथा समर्थनपर ही निर्भर करता है - चाहे वह राजनीतिक व्यक्ति हो या गैर-राजनीतिक, राजा हो या भिखारी, जमींदार हो या उसकी रैयत । इसलिए खादीको राजनीतिक उथल-पुथलसे अलग रखनेका पूरा प्रयत्न किया जा रहा है। यह विद्रोहका चिह्न नहीं बल्कि स्वत्वाग्रह, आत्मनिर्भरता और इस संकल्पका द्योतक है कि हम गरीब और अमीर, मजदूर और पूँजीपतिके बीचका कृत्रिम भेद मिटाकर दोनोंमें एक जीवन्त सम्बन्ध और एकता कायम करेंगे । इसलिए मैं यह आशा कर रहा हूँ कि आगामी प्रदर्शनीको सभी वर्गोंका ठोस सहयोग- समर्थन प्राप्त होगा - बंगलोर छावनी (कैंटोनमेंट) की यूरोपीय बस्तीके लोगोंका भी । शेष लोगोंके साथ उनका सहयोग प्राप्त करके भी मुझे उतनी ही खुशी होगी । सच तो यह है कि नन्दी और बंगलोर में स्वास्थ्य-लाभके लिए मेरे विश्रामके दौरान जो यूरोपीय मित्र मुझे देखने आते रहे हैं, उन सबसे मैंने निस्संकोच भावसे खादीका सन्देश, अर्थात् भारतके करोड़ों क्षुधार्त लोगोंका सन्देश स्वीकार करनेका अनुरोध किया है।

अब दो शब्द में बंगलोरके फैशनपरस्त लोगोंसे कहूँगा । मैं देखता हूँ कि त्रिच- नापल्लीके एक अध्यापक पहनावे-ओढ़ावेके सम्बन्धमें एक न्यूनतम स्तरको अपनाने की वकालत करते रहे हैं। मैंने यह भी देखा कि अभी कुछ ही दिन पहले श्रीयुत श्रीनिवास शास्त्रीने एक सार्वजनिक सभामें उस चीजके सम्बन्धमें अपना विचार व्यक्त किया जिसे किसी हदतक बंगलोरके फैशनपरस्त लोगोंकी जरूरतसे ज्यादा पोशाक पहनने की प्रवृत्ति कहा जा सकता है। और फिर मैंने देखा कि खादीमें विश्वास करने- वाले लोगोंके मन में बंगलोरकी फैशनपरस्तीके कारण खादीको अपनानेमें एक प्रकारका भय और संकोच है। मेरा अनुरोध है कि लोग फैशनकी प्रवृत्तिको दूर करनेके लिए हिम्मतसे काम लें, क्योंकि इस प्रवृत्तिको अपने भूखे पड़ोसियोंकी कीमतपर ही कायम रखा जा सकता है। पैसेवाले लोग वस्त्राभरण या अन्य साजसज्जाके सम्बन्धमें बेशक पूरी सुरुचि बरतें, लेकिन मेरा अनुरोध यह है कि वे इस बात में अपनी स्थितिकी तुलना अपने भूखे नंगे भाइयोंसे करते हुए उस अनुपात और औचित्यका तो खयाल रखें ही, जिसका खयाल हर सुव्यवस्थित समाजमें बराबर रखा जाता है। पहनावेकी दृष्टिसे भारतका न्यूनतम मान एक लँगोटी है, जिसमें वर्गगज कपड़ा भी नहीं लगता । अतः हमारे फैशनका इस न्यूनतम मानसे कोई मेल तो बैठना चाहिए। जो लोग भारतको कर्म करनेके लिए जाग्रत करनेके उद्देश्यसे इस न्यूनतम मानको ऊपर उठाना चाहते हैं और भारतकी आवश्यकताओंमें वृद्धि करना चाहते हैं, वे ऐसा न सोचें कि गरीबोंकी उपेक्षा करके पहले सिर्फ अपनी ही आवश्यकताओंमें वृद्धि करके वे इस उद्देश्यको पूरा कर लेंगे । यह तभी पूरा होगा जब कि वे खुद अपनी आवश्यकताओंके