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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

१. गीताका शुद्ध अर्थ तो वही कर सकता है जो उसकी शिक्षाके अनुसार चलनेका प्रयत्न करता है । और जिस हृदतक उसका यह प्रयत्न सफल होता है उसी हदतक उसका किया हुआ अर्थ भी शुद्ध होता है। गीता पाण्डित्यकी दृष्टिसे लिखा गया ग्रन्थ नहीं है। पाण्डित्यकी दृष्टिसे यह गूढ़ ग्रन्थ भी नहीं है । मेरे विचारमें इस ग्रन्थकी गूढ़ता उसके शिक्षणके अमलकी गूढ़तामें है । लोकमान्य तिलक और शंकराचार्य गीताका क्या अर्थ करते हैं, यह समझनेकी हदतक उनकी टीकाएँ मैंने पढ़ी हैं । किन्तु उनकी विद्वत्ताके बारेमें कुछ कहनेका मुझे अधिकार नहीं है। गीताका अर्थ करनेके लिए मैंने ऊपर जो पद्धति सुझाई है उसके अनुसार किसीके किये हुए अर्थके विषयमें मत प्रकट करनेका सवाल ही नहीं उठता। वेदों और उपनिषदोंसे गीताका सम्बन्ध है क्योंकि गीता दोनोंका दोहन है ।

२. चाहे जितना कष्ट सहकर समत्वकी स्थिति प्राप्त करने और उसे प्राप्त करनेके लिए ज्ञानमय भक्ति अर्थात् फलकी इच्छा किये बिना जीवमात्रकी सेवा करनेके साधनका गीता में अनेक प्रकारसे वर्णन किया गया है ।

३. गीताकी देवी सम्पद् यानी वह सम्पद् जो आत्मदर्शन कराये । उसका लक्षण राग-द्वेषादिका मन्द पड़ जाना और उसका साधन भगवद्भक्ति है ।

४. सामान्यतः पूर्वाचार्योंके ग्रन्थोंको जहाँतक मैं समझ सका हूँ और उनकी शिक्षाओंके बारेमें जो कुछ जान सका हूँ उसके आधारपर मैं कह सकता हूँ कि मुझे मतभेद दिखाई नहीं दिया ।

५. [ कल्पना कीजिए कि ] एक ब्राह्मण और एक भंगी दोनोंको बिच्छूने काट लिया है। मैं देखता हूँ कि ब्राह्मणकी सहायताके लिए तो एक वैद्य आ पहुँचा है और दूसरेको बुलाया गया है। भंगीकी तरफ वैद्य ताकता भी नहीं और भंगी सहायताके लिए चीख-पुकार मचा रहा है। उसकी चीख वैद्य भी सुन रहा है, ब्राह्मण भी । यदि ब्राह्मण समदर्शी हो तो वह वैद्यसे कहेगा कि पहले उस भंगीकी सार-सँभाल करो, और बादमें मेरी करना । यदि मैं समदर्शी होऊँगा तो पहले उस भंगीके पास दौड़ा जाऊँगा और बिच्छूने जहाँ उसके डंक मारा होगा उस स्थानको चूस लूंगा तथा जो भी उपचार जानता हूँगा, करूँगा । भंगीका उपचार करनेके बाद यदि ब्राह्मणको मेरी सेवाकी आवश्यकता होगी तो में उसकी सेवा करूँगा और उसके बाद ही मैं अपने अन्य कामोंको हाथमें लूंगा । समदर्शी होनेका तात्पर्य है सारी दुनियाकी समान भावसे सेवा करना ।

६. गीतामें भगवान्ने स्वजनोंके हननका उपदेश दिया ही नहीं है । जिसे वह न्याय मानता है उस न्यायकी प्राप्तिके लिए जिस समय अर्जुन युद्धमें उतरा उस समय उसके मनमें अपने और परायेका भेद उत्पन्न हुआ । भगवान् ने उसके इस अपने और परायेका भेद करनेके मोह ओर दौर्बल्यका ही निराकरण किया है। मैं अपने या पराये किसीकी हिंसा नहीं करूँगा, यदि अर्जुनने ऐसा प्रश्न उठाया होता तो कृष्ण क्या उत्तर देते, इसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। किन्तु मेरी विनम्र सम्मतिमें तो गीता उक्त प्रश्नका कोई सीधा उत्तर देनेकी दृष्टिसे लिखा गया ग्रन्थ नहीं है ।