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पत्र : सन्तोजी महाराजको

७. मुझे ऐसा लगता है कि सनातन वैदिक धर्म में सार्वभौमिकता और उदारता विशेष मात्रामें हैं ।

८. मुख्य धर्म-ग्रंथ कौनसा है, इस प्रश्नका उत्तर व्यक्तिगत तौरपर ही दिया जा सकता है। मेरे लिए ऐसा ग्रन्थ 'गीता' ही है । विषयानुसार उक्त ग्रन्थोंमें आचार- प्रतिपादक और ईश्वर स्वरूप प्रतिपादक ये दो भेद तो होते ही हैं । इस प्रश्नमें यदि इससे अधिक और कुछ पूछा हो तो उसे मैं समझ नहीं सका ।

९. विविध धर्मो में जो आचारभेद है, वह तो समय-समयपर बदलता ही रहता है; ज्यों-ज्यों ज्ञान तथा औदार्य बढ़ता जाता है त्यों-त्यों भेद घटते जाते हैं ।

१०. मुझे लगता है कि इस प्रश्नका समावेश नवें प्रश्न में हो जाता है किन्तु उसे और भी स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे इतना लिख रहा हूँ । यह माना जा सकता है कि 'कुरान', 'वाइवल', वेदादिमें जिन आचारोंका उल्लेख है वे सब आचार उस काल और देश-विशेषके लिए उचित ही थे । यदि वर्तमान युगमें हमारी बुद्धि उन्हें स्वीकार नहीं कर पाती तो हमारा कर्त्तव्य है कि हम उन्हें बदल दें अथवा उनको त्याग दें । केवल सनातन सिद्धान्तोंको ही कोई बदल नहीं सकता ।

११. अन्य व्यक्तियों और अन्य धर्मोके प्रति हमारा मनोभाव और हमारा आचरण आत्मौपम्यके सिद्धान्त के अनुसार होना चाहिए ।

१२. धर्म-ग्रन्थोंकी व्याख्याओंमें जो विभिन्नता है उसमें से किसी एक सर्वथा सत्य पक्षको ढूंढ़ निकालना तो में करीब-करीब नामुमकिन मानता हूँ । और इसीलिए 'गीता' ने समत्वको सर्वोपरि सिद्ध किया है । पूर्णत: सत्यस्वरूप तो एक ईश्वर ही है । अतः अपूर्ण मनुष्य नम्रतापूर्वक यह माने कि जिस प्रकार हमारा सत्य हमें प्रिय है उसी प्रकार दूसरोंको भी उनका सत्य प्रिय होगा ही । इसलिए सभी अपने- अपने मार्गपर चलते रहें और अन्य पक्ष उसमें बाधा न डालें। ऐसा करते हुए जिनका मार्ग अनुभवसे ज्यादा सही और सीधा सिद्ध होगा उसे अन्य लोग भी सहज ही अपना लेंगे ।

१३. जबतक शुद्ध आचरणवाला, अनुभवी पुरुष हमें नहीं मिलता तबतक हम यमनियमादिका पालन करते हुए जिस धर्म-ग्रन्थपर हमारी श्रद्धा हो, उसका श्रवण- मनन करते रहें तथा तदनुसार आचरण करते रहें। जो इतने अज्ञ हैं कि इतना भी नहीं कर सकते और उनमें शुद्ध आचरणवाला कोई मनुष्य भी न हो तो फिर उनका रक्षक ईश्वर ही है । में 'गीता' के इस वचनको मानता हूँ कि किसी-न-किसी प्रकार उनका भी उद्धार हो ही जाता है। शब्द निश्चय ही अर्थसूचक होते हैं, किन्तु मानो वे सजीव हों, इस तरह उनके अर्थमें भी ह्रास और विकास होता रहता है ।

१४. मेरी समझके अनुसार तो पुनर्जन्मकी बात स्वीकार किये बिना यह सिद्ध करना लगभग असम्भव हो जायेगा कि जगत् में न्यायका नियम काम कर रहा है। इसके सिवा, कोई जीव अपनी आयुकी अवधिमें, जो कि विराट् काल-चक्रमें एक बिन्दु जितनी ही है, जगत्का पूरा अनुभव ले भी नहीं सकता। मैं तो यहाँतक कह सकता हूँ कि पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाणका अनुभव मुझे हर क्षण होता रहता है।

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