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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

१५. जैसे अंधकार और प्रकाश, सुख और दुःख, सत्य और असत्यका अस्तित्व किन्तु जैसे सत् और असत्के परे कोई पाप और पुण्यके उस पार भी कुछ है बौद्ध दर्शन, न्याय, सांख्य आदिकी व्या- है उसी प्रकार पाप और पुण्यका भी है । अगम्य और अवर्णनीय वस्तु है उसी प्रकार जिसका अनुभव शरीरकी पहुँचके बाहर है । ख्याएँ अकाट्य नहीं हैं किन्तु उनके अपने दृष्टिकोणके अनुसार उन्हें समझा जा सकता है और स्वीकार भी किया जा सकता है।

१६. मनुष्यकी विचार-शक्तिके विकासके लिए संस्कारोंकी आवश्यकता अवश्य है । शास्त्रीय किसे कहें इस समस्याका निराकरण तो प्रत्येक समाज अपने-अपने युगके लिए स्वयं ही करता है।

१७. हिंसाका अर्थ है - किसी भी जीवको शरीर, वाणी या मनसे दुःख देने के हेतुसे दुःख देना । ऐसा न करना अहिंसा है । वेदान्तकी अहिंसा, मैं उसे जैसा समझा हूँ उस रूपमें तो, मुझे ठीक ही मालूम होती है। किन्तु सच तो यह है कि अहिंसाकी मेरी कल्पना वेदान्तके अनुकूल है या नहीं, यह में नहीं कह सकता । और इसी प्रकार में यह भी नहीं कह सकता कि वेदान्तका मैंने गहरा अध्ययन किया है ।

१८. ब्रह्मचर्यके पालनके लिए मन, वाणी और शरीरको निरन्तर सात्त्विक कार्यों में लगाये रखना चाहिए । इसलिए सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मचारीका रास्ता भोगी गृहस्थाश्रमीके रास्तेसे ठीक उलटा होना चाहिए। मेरा अनुभव है कि मनोविकारोंका आहारसे घनिष्ठ सम्बन्ध है । लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि आहार स्वच्छ और स्वल्प हो तब भी मनोविकारोंका अनुभव होता है। मतलब यह हुआ कि आहार ब्रह्मचर्यके पालनका एक बड़ा साधन है किन्तु वही सब-कुछ नहीं है । शुद्ध- तम आहार व पक्व फल हैं, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं। एक बात और, भोजन- की क्रिया एकान्तमें होनी चाहिए। असल बात यह है कि स्वादेन्द्रियको जीत लिया जाये तो ब्रह्मचर्य आसान हो जाता है । ज्ञानका सम्बन्ध मनके साथ है और आहार- का जड़ देहके साथ - ऐसा कहने में दो दोष हैं। एक तो जीवित मनुष्यकी देह सर्वथा जड़ नहीं है और दूसरे जिसे हम मन कहते हैं, जिसे अनुभवका ज्ञान होता है उस मनका देहके साथ वैसा ही प्रगाढ़ सम्बन्ध है जैसा तेजका सूर्यसे । मृत देह यानी जिससे मन चला गया है वह देह तो न खाता है, न पीता है। यानी, खानेका कार्य देहके द्वारा मन ही करता है। इसी तरह वस्तुतः ज्ञान भी वह देहके द्वारा ही प्राप्त करता है ।

१९. ईश्वर यानी जीवमात्र जिसमें एकरूप हो जाते हैं वह महाजीव । और जीव यानी वह चेतन प्राणी जो इस [ सर्वभूताधिवास ] एकरूपको नहीं जानता और अपने- को अलग मानता है । यह महाजीव सबमें निवास कर रहा है फिर भी प्रत्यक्ष नहीं है, यही इसकी विशिष्टता है, विचित्रता है - यही इसकी माया है। इस मायाको पारकर उसे पहचानना ही पुरुषार्थ है । किन्तु वह ऐसी वस्तु नहीं है जो इस तरह प्रत्यक्ष हो जाये कि हमारी बुद्धि उसे समझ ले । अतः उसे प्रत्यक्ष करनेका कोई साधन कैसे हो सकता है ? किन्तु जिसमें अपने अहंको भूलकर शून्य बन जानेकी शक्ति