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पत्र : सन्तोजी महाराजको

९९ है वह उसकी झाँकी पा सकता है; अलबत्ता, वह भी किसी दूसरेको यह झाँकी दिखा नहीं सकता। उसकी इस झाँकीको देखते ही वह ऐसा चकित हो जाता है, ऐसा मुग्ध बन जाता है कि वह उसीमें मग्न हो जाता है । अपना यह परम आनन्द किसीको बतानेका न उसे भान रहता है और न वह इसकी आवश्यकता महसूस करता है ।

२०. शास्त्रकारोंके सुझाये हुए सारे मार्गोंको मिलाकर मैंने अपने लिए किसी तरह यहाँ-वहाँसे कुछ ले लिया है । इसलिए मेरे लिए यह कहना कठिन है कि मुझे कौन-सा मार्ग मान्य है। मुझे शंकराचार्य प्रिय हैं; रामानुज, मध्व, वल्लभ आदि भी उतने ही प्रिय हैं। मैंने हरएकसे बहुत पाया है किन्तु किसी एकसे ही मेरी तृप्ति हो गई हो, ऐसा नहीं हुआ ।

२१. इस प्रश्नका उत्तर पिछले प्रश्नोंके उत्तर में आ गया माना जाना चाहिए । यज्ञ, दान, तप आदि कर्त्तव्य हैं सही किन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं है कि उनका पालन जिस तरह भूतकालमें होता था ठीक उसी तरह आज भी होना चाहिए। यज्ञ, दान, आदि स्थायी कर्त्तव्य हैं किन्तु उनके अनुष्ठानकी रीति युग-युगमें और देश-देशमें बदलेगी । उदाहरण के लिए, मेरी दृष्टिमें इस देश और इस युगका महायज्ञ चरखा है । इसी तरह इस देश और इस कालके मुमुक्षुके लिए दानका उत्तम रूप देशकी सेवाके लिए तन, मन और धन अर्पण करना है । और अन्नाभाव तथा अकालसे भूखों मर रहे अस्पृश्यादि वर्गके असंख्य पीड़ितोंके कष्टको स्वयं अनुभव करना, उसकी आग में जल मरना - यह आजका तप है । और जो मनुष्य ये तीन कार्य करता है वह अवश्य पवित्र बनेगा और जिस विराट् स्वरूपका दर्शन अर्जुनको हुआ था उसका दर्शन उसे भी होगा ।

२२. सगुण और निर्गुण तो अज्ञान या अपूर्ण ज्ञानसे युक्त और ज्ञानकी प्राप्तिके लिए असफल प्रयत्न कर रहे मनुष्यकी भाषाके शब्द हैं। ईश्वर इन शब्दोंसे वर्णित नहीं होता; वह अवर्णनीय है । अतः उसके वर्णनके लिए निर्गुण शब्दका प्रयोग भी एक निरर्थक कोशिश ही है । लेकिन वह अपने भक्तोंके अधीन है अतः उसके लिए हजारकी तो बात ही क्या असंख्य विशेषण लगाये जा सकते हैं और उन-उन भक्तोंकी दृष्टिसे उनका औचित्य भी सिद्ध किया जा सकता है । और यह उसकी महान् कृपा है कि वह इन सारे विशेषणोंको स्वीकार कर लेता है । इसलिए अगर हम यह कहकर उसका वर्णन करें कि ये सारे शरीर, ये समस्त इन्द्रियाँ, सृष्टिकी अखिल वस्तुएँ - सब ईश्वर ही है तो इसमें कोई दोष नहीं है। ऐसा कहकर हम उसका वर्णन करनेकी अपनी अयोग्यता स्वीकार कर लेते हैं और इस प्रश्नसे मुक्त हो जाते हैं ।

२३. में अतिशय नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मेरे उपवास और मेरा कष्ट- सहन, ये दोनों, ईश्वरका प्रत्यक्ष दर्शन करनेकी इच्छाका ही परिणाम हैं। मैं उप- वास' या अनशन भो इसीलिए करता हूँ कि इन उत्तरोंमें मैंने उसकी जिस झाँकी- का थोड़ा-बहुत वर्णन किया है वह झाँकी मैं देख सकूं । किन्तु उपवास जबरदस्ती नहीं किया जा सकता। उसके लिए योग्यता चाहिए। उस योग्यताकी प्राप्तिके लिए मैं सतत