पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१४

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सकते हैं जब हमारा हृदय शुद्ध हो, " पर अपने हृदयको शुद्ध बनाना बहुत कठिन है । इसीलिए ईसाई धर्मकी जीवन-योजनामें हम 'नया जन्म' नामकी चीज देखते हैं " (पृष्ठ ५४९) । हिन्दू धर्मका 'द्विज' शब्द उसी अर्थका द्योतक है । किन्तु 'नया जन्म अथवा 'द्विज' शब्दका प्रचलित अर्थ तो उन्हें भाषाका दुरुपयोग ही जान पड़ा। उनके विचारसे 'नया जन्म' ". . . व्यक्तिके अन्दर होनेवाला एक परिवर्तन है, जो साफ लक्षित होता है । . . . यह हृदयका परिवर्तन है . . ."(पृष्ठ ५५० ) । वे मानते थे कि समाज-सेवासे ही आत्माकी उन्नति हो सकती है। वे सेवा कार्यका अर्थ है यज्ञ" (पृष्ठ १०३) । उनका निश्चित मत था कि कर्म, भक्ति अथवा ज्ञान किसी भी क्षेत्र में " एककी उन्नतिमें सबकी उन्नति है और एककी अधोगतिमें सबकी अधो- गति है" (पृष्ठ ३६५) । गांधीजी को आध्यात्मिक संबल अपने सहयोगियों और साथियोंसे प्राप्त होता था । बंगलोरसे विदा होते हुए एक भाषण में उन्होंने अपना दृष्टिकोण इन शब्दों में समझाया : मनुष्य एक व्यक्तिके साथ-साथ सामाजिक प्राणी भी है, समाजका सदस्य है । व्यक्तिके रूपमें चाहे तो वह निद्रा समयको छोड़- कर शेष सारे समय प्रार्थना-रत रह सकता है, परन्तु समाजके सदस्य के रूपमें उसे सामूहिक प्रार्थनामें भी शामिल होना चाहिए । मैं तो जब भी एकान्त पाता हूँ, प्रार्थना कर लेता हूँ, परन्तु यदि सामूहिक प्रार्थना न हो तो मुझे बड़ा अकेलापन लगता है" (पृष्ठ ४५४) ।

गांधीजी ने ये सारी बातें जनसाधारणसे नहीं, बल्कि जन-सेवकोंको लक्षित करके कहीं । जनसाधारणका असली दुःख तो उसकी दीनता थी । उसके सामने ईश्वर और अध्यात्मकी चर्चा करना कैसे उचित हो सकता है ? रोटीके लिए तरसते लोगोंके सामने धर्म परोसना तो उनका उपहास करना होगा। उन्होंने कहा : " यदि मैं या आप उनके सामने ईश्वरकी बात करेंगे तो वे हमें दुष्ट और बदमाश कहेंगे। यदि वे किसी ईश्वरको जानते हैं तो उस ईश्वरको जो उनके लिए त्रासका कारण बना हुआ है, उनपर अपना क्रोध उतारता रहता है और जो निष्ठुर और आततायी है” (पृष्ठ ४९१) ।

हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्यको लेकर उनका मन काफी व्यथित था, यद्यपि इस अवधिमें इस विषय पर वे बोले बहुत कम ही । यह मौन उन्होंने जान-बूझकर धारण कर रखा था और इसके पीछे उस अपमानकी स्वीकृति छिपी हुई थी जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता था (पृष्ठ ३) । वैसे तो उन्हें मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरूकी राजनीतिक विचक्षणता पर अधिक भरोसा था, किन्तु कांग्रेसके अध्यक्ष-पदके लिए उन्होंने डॉ० मुहम्मद अहमद अन्सारीका नाम पेश किया, क्योंकि उन्हें ऐसी आशा थी कि हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्पन्न करनेमें वे अधिक सहायक होंगे । जब डॉ० अन्सारीने विधान परिषदोंमें कांग्रेसजनोंको सहयोग करनेका सुझाव देते हुए एक वक्तव्य जारी करनेका इरादा जाहिर किया और गांधीजी को उस वक्तव्यका मसविदा भेजा तो उन्होंने उनको बहुत स्पष्ट शब्दोंमें, किन्तु साथ ही किंचित् विनोदपूर्ण शैलीमें, पत्र लिखकर कहा कि आप अपने वक्तव्यको फाड़कर फेंक दें (पृष्ठ ३३१-३४) । लेकिन इसके बावजूद जब वक्तव्य प्रकाशित हो गया और उसमें डॉ० अन्सारीने अध्यक्ष पद छोड़नेकी बात कही तब गांधीजीने उन्हें लिखा : "हिन्दू-मुस्लिम एकताकी