पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१५

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सात

जरूरतके बारेमें आपके खयालातसे यह बात मेल नहीं खाती; और आप ओहदे से अलग न हों। लेकिन . . . मेरे खयाल से आपको एक छोटा-सा बयान जारी करना पड़ेगा, जिसमें आप यह साफ बता देंगे कि यद्यपि आप अपने बयान में रखी नीति पर अब भी दृढ़ हैं, लेकिन आप अपनी उस रायको कांग्रेसपर थोपनेकी कोशिश नहीं करेंगे, और अपने कामका दायरा हिन्दू-मुसलमान एकता बढ़ाने तक ही महदूद रखेंगे।” (पृष्ठ ४३८)

जिन दिनों गांधीजी मद्रासमें थे, वहाँ नीलकी प्रतिमाके हटानेके लिए आन्दोलन चल रहा था । वे इसमें कांग्रेसको प्रत्यक्ष रूपसे शामिल होने देनेके लिए तो तैयार नहीं थे, परन्तु इस दिशामें निजी तौरपर किये जानेवाले प्रयत्नोंका उन्होंने समर्थन किया । साथ ही इस बातपर भी उनका आग्रह था कि इस उद्देश्यसे सत्याग्रह करनेवालोंको 'यंग इंडिया' के लेखोंसे सत्याग्रहकी शिक्षा लेनी चाहिए और सत्याग्रह इसी शर्तपर करना चाहिए कि यदि वह सफल हो गया तो उसका श्रेय तो कांग्रेस लेगी, किन्तु उसके विफल होनेपर वह अपयशकी भागी नहीं बनेगी (पृष्ठ ५०८-९) । उनका दावा था कि "मैं . . . भारतीय राजनीतिके मानचित्र रहित सागरका एकमात्र प्रकाश स्तम्भ -- सत्याग्रह -- का संरक्षक . . . हूँ । " (पृष्ठ १८५)

जो लोग गांधीजीके सबसे ज्यादा निकट थे, वही उनकी आलोचनाके सबसे अधिक पात्र थे । इस आरोपके उत्तरमें कि वे ईसाइयों और मुसलमानोंके प्रति तो नरमीका रुख रखते हैं, किन्तु हिन्दुओंके साथ उनका रवैया भिन्न है, उन्होंने कहा कि 'मुझे हिन्दुओं द्वारा गलत रूपमें समझे जानेका कोई भय नहीं रहता” (पृष्ठ ५८२) । इसका मतलब यह नहीं कि अन्य धर्मावलम्बियोंकी बुराइयोंके सम्बन्धमें वे बिलकुल चुप ही रहे। इसके विपरीत अपने-अपने धर्ममें लोगोंके विश्वासको दृढ़ करनेके बजाय उसे कमजोर बनानेवाले और " सबसे अधिक अर्थगभित शब्द ईश्वर " की अनर्गल व्याख्या करनेवाले ईसाई धर्मप्रचारकोंके प्रति अपना असन्तोष उन्होंने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया (पृष्ठ २८०-८१) । हिन्दू सुधारकको उनकी सलाह यह थी कि वह "हिन्दु जातिमें रहते हुए, किसीका द्वेष न करते हुए, हिन्दु धर्मसे पूर्ण प्रेम रखते हुए . . . अपना काम करते जाय और वह करते हुए जो कुछ भी कष्ट पड़े उसकी बरदाश्त करे ।” (पृष्ठ ३६) । इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे प्राचीनताको समग्र रूपसे पुनः प्रतिष्ठित करनेके समर्थक थे । कृत्रिम यूरोपीयकरणका तो उन्होंने विरोध किया, किन्तु वे यह माननेको भी तैयार न थे कि इसका एकमात्र विकल्प "प्राचीन आर्य परम्पराको पूरी तरह स्वीकार कर लेना है" (पृष्ठ ३४४) । उनके विचारसे न केवल हिन्दू-समाज और हिन्दू धर्मको बदलती हुई परिस्थितियोंके अनुसार स्वयं बदलना है, बल्कि पाश्चात्य संसार में आये जो परिवर्तन कल्याणप्रद हैं, उनको भी स्वीकार करके उनका लाभ उठाना है । कारण, "बुद्धि या ज्ञान किसी एक महादेश या एक जातिकी बपौती नहीं है । . . . मुझे यह स्वीकार करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि विश्वके कल्याणके लिए पश्चिममें एक नई शक्तिका धीरे-धीरे किन्तु निश्चित तौरपर उदय हो रहा है" (पृष्ठ ३४४) । आत्मालोचनकी क्षमताका कदाचित् सबसे पुष्ट उदाहरण " नाली-निरीक्षककी रिपोर्ट " शीर्षक लेख है। इसमें