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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अब दूसरी परेशानीकी जाँच करें :

मेरी समझ में यह नहीं आता कि आप पाठशालाओंमें ज्ञान और उद्योग दोनोंको एक ही साथ बराबरीका स्थान कैसे देते हैं ?

यह सवाल मैंने, जबसे देशमें आया हूँ, तभीसे सुना है और तबसे मैंने इसका एक ही जवाब दिया है। वह यह है कि दोनोंको बराबरीका स्थान मिलना ही चाहिए। पहले ऐसा ही होता था । विद्यार्थी समित्पाणि होकर गुरुके घर जाता था, यह उसकी नम्रता और सेवा-भावको बताता था । और वह सेवा गुरुके लिए जंगलसे लकड़ी और पानी वगैरह लानेकी होती थी। यानी विद्यार्थी गुरुके घर खेती, गो-पालन- उद्योग और शास्त्रकी जानकारी हासिल करता था ।

आज ऐसा नहीं होता । इसीलिए दुनिया में भुखमरी और दुराचार बढ़ा है। अक्षर-ज्ञान और उद्योग अलग-अलग नहीं हैं। फिर भी उन्हें अलग करनेसे, एक-दूसरे- का सम्बन्ध तोड़ देनेसे ज्ञानका व्यभिचार होने लगता है । उद्योगकी हालत पति द्वारा छोड़ी हुई पत्नी-जैसी है । और ज्ञानरूपी पति उद्योगको छोड़कर मनमानी करनेवाला बन गया है और वह जगह-जगह अपनी बुरी नजर डालता हुआ भी अपनी कामना पूरी नहीं कर पाता, इसलिए आखिर में मनमानी करनेसे थककर गिर जाता है ।

दोनोंमें किसीका पहला दर्जा हो सकता हो तो वह उद्योगका है । बच्चा जन्मसे अपनी अक्ल काममें नहीं लेता, मगर शरीरसे काम लेता है । पहले हाथ-पैर और बादमें आँखें इस्तेमाल करता है । फिर चार-पाँच सालकी उम्र में समझने - ज्ञान पाने लगता है। समझनेकी शक्ति आते ही वह शरीरको भुला दे, तो शरीर और समझ दोनोंका नाश हो जाये । शरीरके बिना समझ नहीं आ सकती। इसलिए समझका उपयोग शरीरके उद्यममें करना होता है । आजकल शारीरिक मेहनत सिर्फ शरीरको गठीला बनानेके लिए कसरत करनेमें ही रह गई है, जबकि पहले कसरत उपयोगी श्रम में हो जाती थी । कहनेका आशय यह नहीं है कि बच्चे खेलें कूदें ही नहीं। पर इस खेल-कूदकी गुंजाइश थोड़ी ही होगी और वह शरीर और मनके लिए एक किस्मका आराम होगा । शुद्ध शिक्षामें आलस्यको स्थान नहीं होता । शिक्षा उद्योगकी हो या अक्षर-ज्ञानकी, दोनों रसमय होनी चाहिए। बच्चा पढ़ाई-लिखाई या उद्यमसे ऊब जाये, तो इसमें उसका दोष नहीं, बल्कि शिक्षा और शिक्षकका दोष है ।

इस खतको मैंने सँभालकर रख छोड़ा था । इस बीच मेरे हाथ एक किताब आ गई। उसमें मैंने देखा कि अभी इंग्लैंडमें उद्योगके साथ किताबी शिक्षा देनेके केन्द्र खोलनेवाली जो संस्था खड़ी हुई है, उसमें इंग्लैंडके लगभग सभी बड़े आदमियोंके नाम हैं। उनका मकसद यह है कि अभी जो शिक्षा दी जाती है, उसका रुख बदलकर बच्चोंको उद्योग और अक्षर ज्ञान साथ-साथ सिखानेके लिए उन्हें लम्बे-चौड़े मैदानोंवाली जगहों पर रखा जाये, जहाँ वे धन्धे सीखें, उनसे कुछ कमा भी लें और लिखना पढ़ना भी सीख जायें । सम्पादक कहते हैं कि ऐसा करनेसे अक्षर ज्ञान में समय ज्यादा लगेगा, मगर वे यह भी कहते हैं कि ऐसा होनेमें फायदा है, नुकसान नहीं। क्योंकि इस बीच विद्यार्थी कमाने लगता है और उसे जैसे-जैसे ज्ञान मिलता जाता है, वैसे-वैसे वह उसे पचाने लगता है ।