पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०५
एक विद्यार्थीकी परेशानी

दक्षिण आफ्रिकामें मैंने जो प्रयोग किये, मेरा खयाल है, वे इस बातकी ताईद करते हैं । जहाँतक मुझे करना आया और मैं उन्हें कर सका, वहाँतक वे सफल हुए थे।

जहाँ शिक्षाका तरीका अच्छा होता है, वहाँ स्ववाचनके लिए नाममात्रको समय चाहिए। विद्यार्थियोंको जो जीमें आये वही करने, पढ़ने या बेकार रहना हो तो बेकार रहनेके लिए थोड़ा वक्त तो चाहिए ही । मुझे अभी मालूम हुआ है कि योग- विद्यामें इसका नाम (4 शवासन है । शवासन " का अर्थ है मुर्देकी तरह लम्बे होकर पड़ जाना, और शरीर, मन वगैरहको ढीला करके जान-बूझकर जड़की तरह पड़े रहना । उसमें भी रामनाम तो हर साँसके साथ चलता ही रहेगा, मगर वह आराम में कोई खलल नहीं डालेगा । ब्रह्मचारीके लिए उसकी साँस ही यह नाम होता है ।

मगर मेरा कहना ठीक हो तो उसका अनुभव इस विद्यार्थीको और उसके साथियोंको भी, जो झूठे नहीं हैं, घमंडी नहीं हैं और प्रयत्नशील हैं, क्यों नहीं होता ?

हमारी दयनीय हालत यह है कि हम सब शिक्षक अक्षर ज्ञानके जमाने में पैदा हुए और पले हैं। इतनेपर भी कुछकी बुद्धि इस चीजकी कमीको देख पाई है। यह तुरन्त मालूम न हुआ, अब भी नहीं होता कि सुधार किस तरह किया जाये। फिर जितनी समझ आई है, उतना अमल करनेकी शक्ति नहीं है । 'रघुवंश', 'रामायण' या शेक्स- पियर पढ़ानेवालोंमें बढ़ईगिरी या बुनाईका काम सिखानेकी ताकत नहीं है। उन्हें खुदको जितना 'रघुवंश' पढ़ाना आता है, उतना बुनाईका काम आता ही नहीं होगा । आता होगा तब भी उसमें उनकी इतनी दिलचस्पी नहीं होगी जितनी 'रघु- वंश' में है । ऐसे अधूरे साधनोंसे पूर्ण उद्योग और ज्ञान सीखे हुए चरित्रवान विद्यार्थी तैयार करना कोई छोटा काम नहीं है । इसलिए इस संधि कालमें अधकचरे शिक्षकों और प्रयत्नशील विद्यार्थियोंको धीरज और श्रद्धा रखनी ही पड़ेगी । श्रद्धासे समुद्र लांघा जा सकता है और बड़े-बड़े किले तोड़े जा सकते हैं।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, ३-७-१९२७