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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए भी लोगोंसे समर्थन न मिलनेपर मेरा शरीर शिथिल पड़ जाये तो निश्चय ही राष्ट्रके हित में यही बेहतर है कि मैं इतना रुग्ण हो जाऊँ और रुग्ण बना रहूँ कि आगे कोई शरारत करनेके लायक न रह जाऊँ ।

यह प्रदर्शनी, जिसका उद्घाटन करनेका सौभाग्य मुझे शीघ्र ही मिलेगा, सही और उचित ढंगकी अपील है । इसकी रूप-रेखा बहुत सोच-समझकर तैयार की गई है, जिससे आपको यह प्रत्यक्ष दिखाया जा सके कि खादीका क्या महत्त्व है और यह कितना कुछ पहले ही प्राप्त कर चुकी है। अगर इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करनेके बाद खादी आपकी बुद्धिको जँच जाये, और बुद्धिको ठीक लगनेके बावजूद आप अपने- आपको इसके तकाजोंको पूरा करनेमें असमर्थ पायें, तो अलबत्ता इस हालत में मेरे प्रति अपने स्नेहसे साहस और बल प्राप्त करके अपनी कमजोरीको दूर कीजिए । कारण यह है कि मैं यहाँ आप लोगोंके सामने रोजगारके अभाव में आधा पेट खाकर दिन काटनेवाले उन करोड़ों मूक भारतीयोंके अपनी मर्जीसे बने प्रतिनिधिके रूप में खड़ा हूँ जिसे स्वर्गीय देशबन्धु चित्तरंजन दासने दरिद्रनारायणकी उपयुक्त संज्ञा दी थी। खादी के समर्थनके लिए आपके द्वारा दिये गये एक-एक पैसेका, आपके द्वारा खरीदी गई एक-एक गज खादीका मतलब इन करोड़ों लोगोंके प्रति उतनी ठोस और सक्रिय सहानुभूति दिखाना होगा ।

तो मैं अब आपको दरिद्रनारायणकी सेवामें लगे कार्यकर्त्ताओंके निष्कर्ष संक्षेपमें बताता हूँ। अगर आप प्रदर्शनीकी दुकानोंपर मिलनेवाले साहित्य तथा उन दुकानोंपर प्रदर्शित खादी प्रवृत्तिके परिणामोंका धैर्यके साथ अध्ययन करें तो आप उन निष्कर्षोकी सचाईको खुद ही परख सकते हैं। हाथ कताईपर सर्वश्री पुणताम्बेकर और एन० एस० वरदाचारी द्वारा लिखे पुरस्कृत निबन्धमें भारतके इस एकमात्र राष्ट्रीय और सार्वजनीन गृह उद्योगके विनाशका इतिहास और उसके पुनरुद्धारकी सम्भावनाएँ बताई गई हैं। उसमें यह सिद्ध किया गया है कि इस देशमें ऐसे करोड़ों किसान हैं जिनके पास सालमें कमसे कम चार महीने कोई काम नहीं रहता और उनके लिए अपने ही घरोंमें बैठकर जो एकमात्र काम करना सम्भव है, वह है हाथ कताई । बहुतसे अच्छे और सद्-आशय व्यक्तियोंने ग्रामोद्धारके लिए बहुत ही बड़ी-बड़ी और आकर्षक योजनाएँ सुझाई हैं। लेकिन, मैं यह कहनेकी धृष्टता करता हूँ कि आज इनमें से किसी भी योजनापर अमल नहीं किया जा रहा है । और कमसे कम इस पीढ़ी में तो उनमें से किसीको लागू करना सम्भव नहीं है। इसके विपरीत चरखा सारे देश में बिना किसी शोर-गुलके धीरे-धीरे प्रगति करता रहा है। इसका पुनरुद्धार १९२० से शुरू हुआ। किन्तु, उस वर्ष भी यद्यपि सभी नगरोंकी मुख्य सड़कोंपर सफेद टोपियोंकी भरमार दिखाई देती थी, फिर भी वास्तवमें अगर बढ़ाकर अन्दाजा लगायें तो भी कुल मिलाकर एक लाखसे अधिक कीमतकी खादी प्राप्त नहीं थी । लेकिन अखिल भारतीय चरखा संघकी रिपोर्टमें, जिसे बहुत सावधानीसे तैयार किया गया है, आप देखेंगे कि सिर्फ १९२६ में भारतमें २३ लाख रुपयेकी खादी तैयार की गई और २८ लाख रुपयेकी बेची गई । संघने पूँजीके रूपमें १८ लाख रुपये लगाये । इस खादीको