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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पूर्वक चरखेका अनावरण करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप सब इस आन्दोलनको अपना समर्थन देंगे, जिसका कि यह पात्र है ।

और तब श्री देशपाण्डे एक चरखेको उठाकर गांधीजीके आसनतक ले गये और महात्माजीने तुमुल हर्ष-ध्वनिके बीच उसका अनावरण किया ।

[ अंग्रेजीसे ]

हिन्दू ४-७-१९२७

९४. पत्र : मीराबहनको[१]

४ जुलाई, १९२७

चि० मीरा,[२]

आज मुझे तुम्हारे पत्रकी उम्मीद थी, लेकिन अभीतक तो मिला नहीं । अभी एक और डाक आनेकी कुछ थोड़ी-सी सम्भावना है। मुझे उम्मीद है कि रेल- गाड़ी में तुम्हें बहुत ज्यादा भीड़-भाड़का सामना नहीं करना पड़ा होगा और तुम्हें गुंटकलमें कोई कठिनाई नहीं हुई होगी। तुम्हारे जानेके बाद वालुंजकरका तार आया था । उसमें महादेवसे कहा गया था कि वह तुम्हें काकासाहब, स्वयं वालुंजकर और गंगू से मिलनेके लिए गोलनादमें उतरनेके लिए कहे। लेकिन तुम जा चुकी थीं और सिर्फ इस आशामें कि तुम्हारे बम्बई से रवाना होनेसे पहले ही तुम्हें तार मिल जायेगा ( यह आशा थी भी बहुत कम ), तुम्हें तार देना ठीक नहीं लगा ।

तुमने कितनी अच्छी बात कही ? मैं जुदा हो रही हूँ, लेकिन करीब आनेके लिए। तुम्हारा यहाँ आना भी ठीक था और जब तुम गईं तब जाना भी बिल्कुल ठीक था।

विदाके समय के मेरे शब्दोंको याद रखना । दो महीनेमें हिन्दी पूरी तरह सीख लेनेकी कोशिशमें तुम अपने-आपको परेशान न कर डालना और न अपनी सेहतको ही बरबाद करना । यों हम आशा करते हैं कि तुम यह काम पूरा कर लोगी । लेकिन यदि न कर सको तो कोई हर्ज नहीं; तुम्हारा काम तो केवल कोशिश करना है । फिर वर्धा में तबतक सिर्फ हिन्दीमें ही बोलनेकी प्रतिज्ञा न लेना जबतक तुम सचमुच अपने अन्दरसे इसकी प्रेरणा अनुभव न करो । यह प्रतिज्ञा न लेनेसे कुछ बिगड़ नहीं जायेगा। इसमें तुम्हें मेरी पसन्दका खयाल नहीं करना चाहिए। ऐसे मामलों में मेरे विचार अथवा मेरी इच्छाओंका खयाल करनेका कोई सवाल नहीं होना चाहिए।

  1. बापूज लैटर्स टु मीरा नामक पुस्तकमें मीराबहनने पत्रका सन्दर्भ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “ इस समयतक मैं भगवद्भक्ति आश्रम, रेवाड़ी छोड़ चुकी थी और बंगलोर में कुछ दिनोंतक बापूके पास रह आनेके बाद अब मैं कुछ दिनोंके लिए साबरमती में रह रही थी, जहाँ से मुझे अपनी हिन्दीकी पढ़ाई आगे जारी रखनेके लिए विनोबाके आश्रम, वर्धा जाना था।”
  2. इस पत्र में तथा मीराबहनको लिखे अन्य पत्रोंमें भी सम्बोधन देवनागरी लिपिमें हैं।