९६. पत्र : आश्रमकी बहनोंको
मौनवार, आषाढ़ सुदी ५ [४ जुलाई, १९२७]
बहनो,
कल तुम्हें याद किया था। प्रदर्शनी आदिके काम पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंके अधिक हैं। मीठुबह्नने अपना विभाग जैसा सजाया है, वैसा और लोग नहीं सजा सके । और यही स्वाभाविक है। वह तो चौबीसों घंटे यही सोचा करती है कि खादीको सुन्दर कैसे बनाया जाये । थोड़ी-सी लड़कियोंसे आज तो ४०० लड़कियाँ उसकी देखरेखमें काम करने और कमाने या अपने हाथकी खादी पहनने लगी हैं।
मणिबन अपनी धुनकीसे प्रदर्शनीकी और अपनी शोभा बढ़ा रही है । इतने आश्रमवासी आ जानेके बाद सुबह 'गीताजी 'का पाठ जबानी होता है । आजका अध्याय - यानी चौथा - मणिबहन बोली थी। पहला भी वही बोली थी । उच्चारण अच्छा करती है ।
शुद्ध उच्चारणसे और अर्थसहित 'गीताजी' पढ़ना तो सभी बहनोंको सीख लेना चाहिए। जैसे भोजन बनाना न जाननेवाली स्त्री शोभा नहीं देती, वैसे ही यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि 'गीताजी' न जाननेवाली स्त्री भी शोभा नहीं देती ।
आजकल भण्डारिन कौन है ?
बापूके आशीर्वाद
गुजराती (जी० एन० ३६५६ ) की फोटो - नकलसे ।
९७. पत्र : जे० बी० पेटिटको
कुमार पार्क,बंगलोर
५[१] जुलाई, १९२७
प्रिय श्री पेटिट,
साथमें एक तार भेज रहा हूँ । तार[२] एन्ड्रयूजने साबरमतीके पते पर भेजा था और इसकी एक नकल बंगलोरके पतेपर मुझे भी भेज दी थी। इसमें सारी बातें
- ↑ साधन-सूत्र में आषाढ़ सुदी ६ है जो कि भूल है । यह पत्र प्रदर्शनीके उद्घाटनके दूसरे दिन लिखा गया था।
- ↑ यह तार ४ जुलाईको भेजा गया था और इस प्रकार था: “शास्त्रीके स्वास्थ्यसे चिन्ता । ऊपरसे आर्थिक कठिनाइयां क्योंकि भत्ते बिलकुल अपर्याप्त । वाइसरायके विभागको तार दिया । शास्त्रीको रचनात्मक कार्योंके अलावा और कुछ पसन्द नहीं । अखबारों में इस आशयको विज्ञप्ति देकर कि पूरा भत्ता नितान्त आवश्यक; जनताको सूचित करें। शायद तीन जगहोंपर उनके निवासको स्थायी व्यवस्था रखना आवश्यक । होटलोंमें रहना असम्भव । अखवारोंको भेजे मेरे तारोंकी प्रतीक्षा करें। "