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पत्र : गिरिराजकिशोरको

है और उनकी राय माँगी है। अगर कभी मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इस सम्बन्धमें में कोई उपयोगी काम कर सकता हूँ तो में निस्संकोच भावसे आपको लिखूँगा ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत ए० फेनर ब्रॉकवे

१४, ग्रेट जॉर्ज स्ट्रीट

लन्दन द० प० १

अंग्रेजी (एस० एन० १२५३०) की फोटो - नकलसे ।

१०४. पत्र : गिरिराजकिशोरको

कुमार पार्क,बंगलोर

६ जुलाई, १९२७

प्रिय गिरिराज,

आपका पत्र मिला । आपके आत्म-चिन्तनकी बात मुझे पसन्द आई। इस प्रक्रियामें एक खतरा बराबर रहता है । जो व्यक्ति स्थिर चित्त नहीं होता वह उदास- वृत्तिका बन जाता है और फिर अपने बारेमें तरह-तरहकी बुरी बातोंकी कल्पना करने लग जाता है । यह अवसाद रोगी (हाइपोकान्ड्रियाक) की स्थिति है । क्या आप जानते हैं कि चिकित्साशास्त्रमें इस शब्दका क्या अर्थ है ? इसका मतलब है ऐसा व्यक्ति जो जिस-किसी रोगका वर्णन पढ़ता है उसके बारेमें यह सोचने लगता है कि यह रोग उसे भी है । इसलिए, जहाँ यह बात सर्वथा उचित है कि व्यक्तिको अपनी जिस कमजोरीका भान हो, उसे वह दूर करे, वहाँ उसे अपने अन्दर किसी कमजोरीकी झूठी कल्पना नहीं करनी चाहिए और मनपर उदासीको नहीं छाने देना चाहिए । सही तरीका यह है कि अपने मनमें ऐसा सोचने के बजाय कि मैं अधम हूँ, बहुत बुरा हूँ और मैं कभी अच्छा नहीं बन पाऊँगा यह सोचना चाहिए कि मैं अच्छा बनूंगा; क्योंकि ईश्वर नेक और दयालु है; वह मुझे अच्छा बनायेगा । पहला तरीका व्यक्तिको कमजोर बनाता है, दूसरा उसमें शक्तिका संचार करता है।

आपका यह कथन बिलकुल सही है कि आदर्श रसोइया वह है जिसके मन में खानेवालेके प्रति वैसी ही भावना हो जैसी कि माता के मनमें अपने बच्चोंके प्रति । बेशक, मनमें ऐसी भावना मुश्किलसे आती है; लेकिन अभ्यास करनेसे हर बात सुगम हो जाती है। हर व्यक्ति के साथ धैर्य और सहिष्णुता से पेश आइए; हर प्रश्नका उत्तर बहुत मीठे शब्दों में दीजिए और जो व्यक्ति खाना खा रहा हो वह अगर माँगे तो भले ही खुद अपने लिए और जिन परोसनेवाले लोगोंको अन्तमें भोजन करना हो उनके लिए कुछ भी न बच जाये, लेकिन आप आखिरी चपाती और दालका आखिरी चमचा भी उसके आगे परोस दीजिए। आप अपनी भूख मिटानेके लिए बादमें कुछ पका सकते हैं। इसमें अतिरिक्त समय लग सकता है, लेकिन उसकी