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१०७. पत्र : हिन्दी साहित्य सम्मेलनके मन्त्रीको

बंगलोर

आषाढ़ शुक्ल ७ [६ जुलाई, १९२७][१]


श्रीमान मन्त्रीजी,

आपका तार मुझको कल मिला। मेरा उत्तर आपको मिल गया होगा । उसके पहले जो पत्र मैंने भेजा है वह भी मिला होगा। आपके तारसे मुझको दुःख हुआ । कोर्टमें जानेकी धमकी देना अनुचित था ऐसा मेरा नम्र अभिप्राय है। मैंने तो कई बार कह दिया है, मेरे पत्र में भी लिखा है कि यदि आप यहांका कार्यको सम्मेलनकी मिल्कीयत मानें तो इस बातका फैसला पंच द्वारा हो सकता है । यदि सम्मेलनके हितके लिये कोर्टसे ही फैसला हो सकता है ऐसा आपका अभिप्राय हो तब तो कोर्टमें ही जाना आपका धर्म हो जायगा यह में समझ सकता हूं। यदि कोरटमें ही जाना आप योग्य समझे तो पं० हरिहर शर्माको आप दोषित न समझें। जो कुछ कार्य परिवर्तन हुआ है वह उन्होंने मेरी सम्मतिसे कीया है। मैंने हमेशा यही माना है की दक्षिणका कार्य सम्मेलन द्वारा मैं ही चलाता हूं। मेरा विश्वास ऐसा हि रहा है की सम्मेलनको इस कार्य सिपुर्द करके उसकी प्रतिष्ठा में बढ़ा रहा हूं परंतु यदि सम्मेलन और मेरे बीचमें कुछ मतभेद हुआ तो कार्यका कबजा सम्मेलन अपने हाथ लेना नहीं चाहेगा और मुझको ही अपनी रायके अनुकुल कार्य करनेमें कोई बाधा नहि डालेगा । मैं तो अभि भी आपकी सहाय इस कार्यमें चाहता हूं परंतु यदि आप युं मानते हैं की जो कुछ पैसे जमनालालजीने इकट्ठे कीये और पंडीतजीने दक्षिणमें कीये वह सब सम्मेलनको मालीक बनानेके लीये था तो में लाचार हुं और इस बातका निर्णय पंच या अदालतके मार्फत ही हो सकता है ।

आपका,

एस० एन० ११८१७ की माइक्रोफिल्मसे ।

  1. आषाढ़ शुक्ल ७ को गांधीजी इस वर्ष बंगलोर में थे।