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मैसूरमें गोरक्षा


न तो विभिन्न गो-रक्षा समितियोंके सदस्योंके साथ हुई मेरी चर्चामें और न मेरे सामने इस समय पड़े पत्रोंमें ही मुझे ऐसी कोई बात मिली जिसके कारण में इस पत्र में व्यक्त अपने मतमें कोई परिवर्तन करूँ । पाठक देखेंगे कि मैंने यह कहीं नहीं कहा है कि गो-हत्या के खिलाफ कभी कोई कानून नहीं बनाया जाना चाहिए। मैंने जो कहा है वह यह कि गोहत्यापर तबतक कोई कानूनी पाबन्दी नहीं लगानी चाहिए जबतक कि जिन वर्गोंके लोगोंपर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है उस वर्गके प्रबुद्ध बहुमतकी सहमति न हो। इसलिए अगर मैसूर राज्यको इसके मुसलमान प्रजाजनोंका प्रबुद्ध बहुमत गोहत्यापर पाबन्दी लगानेका कानून बनानेकी सहमति दे देता है तो वह ऐसा कानून बनाकर बिलकुल ठीक काम करेगा, बल्कि उस हालत में वैसा करना उसका फर्ज होगा । गो-रक्षा समितियोंके जो सदस्य मुझसे मिले, उन्होंने मुझे यह विश्वास दिलाया कि मैसूर में हिन्दुओं और मुसलमानोंके पारस्परिक सम्बन्ध बड़े स्नेहपूर्ण हैं और मैसूरके मुसलमानोंका बहुमत कानूनी पाबन्दीका उतना ही हामी है जितने कि हिन्दू; और जब उन्होंने मुझे यह विश्वास दिलाया कि बहुत से यूरोपीय, विशेषकर मिशनरी लोग ऐसी पाबन्दीके पक्षमें हैं तो मुझे बड़ी खुशी हुई। इसलिए, जहाँतक मैसूरमें कानून बनानेके सवालका सम्बन्ध है, अगर मुझसे कही गई बातें सच्ची हैं तो मैसूरमें कानूनी पाबन्दी लगानेका रास्ता बिलकुल साफ है । लेकिन मैंने जो एक बात अपने पत्रमें कही है और जिसपर इन स्तम्भोंमें मैंने बार-बार जोर दिया है, उसे यहाँ एक बार फिर दोहराऊँगा । वह बात यह है कि कानूनी पावन्दीका महत्त्व गो-रक्षाके किसी भी कार्यक्रममें सबसे कम है। लेकिन मुझे जो पत्र मिले हैं उनके स्वरसे और अधिकांश गो-रक्षा समितियोंकी प्रवृत्तियोंसे ऐसा प्रकट होता है कि वे सब सिर्फ कानूनी पाबन्दी लगा दी जानेसे ही सन्तुष्ट हो जायेंगी। मैं ऐसी सभी समितियोंको अपना सारा जोर कानूनी पावन्दीपर ही लगाने के खिलाफ आगाह करना चाहता हूँ । कानूनोंके बोझ से लदे इस देशमें कानून पहलेसे ही बहुत हैं। लोग ऐसा सोचते जान पड़ते हैं कि किसी बुराईके खिलाफ कानून बना देनेसे आगे कुछ किये बिना वह बुराई दूर हो जायेगी । इससे अधिक भयंकर आत्म-वंचना तो कभी नहीं देखी गई। कानून तो थोड़े-से अज्ञान या बुराईमें प्रवृत्त मनवाले लोगोंके खिलाफ बनाया जाता है और तभी वह प्रभावकारी भी साबित होता है; लेकिन जिस कानूनका विरोध जागरूक और संगठित लोग करें या धर्मके नामपर थोड़े-से कट्टरपंथी लोग ही करें, वह कभी भी सफल नहीं हो सकता । मैं गो-रक्षा के प्रश्नपर जितना ही विचार करता हूँ मेरा यह विश्वास उतना ही बढ़ता जाता है कि गायों और उनकी सन्ततिकी रक्षा तभी हो सकती है जब लगातार और धैर्यपूर्वक मेरे सुझाये ढंगसे रचनात्मक प्रयत्न किया जाये। मैंने जिस रच- नात्मक कार्यक्रमको रूपरेखा तैयार की है, उसमें कुछ जोड़ने या परिवर्तन करनेकी गुंजाइश हो सकती है या शायद है भी। लेकिन, अगर भारतके पशुओंको विनाशसे बचाना हो तो इस बातमें सन्देह करनेकी कोई गुंजाइश नहीं है कि एक विस्तृत रचनात्मक कार्यक्रमकी नितान्त आवश्यकता है । और पशुओंकी रक्षाका मतलब वास्तवमें भारत के उन करोड़ों क्षुधार्त पुरुषों और स्त्रियोंकी रक्षाकी दिशा में भी उठाया गया एक