पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१७

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नौ

चाहता है तो वे उसकी स्वतन्त्रतामें हस्तक्षेप करते ही हैं। ऐसी स्थितिमें बच्चेको इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि "स्वतन्त्रतापर लगाये जानेवाले कुछ प्रतिबन्ध व्यक्तिको नीचे गिराते हैं, और कुछ ऊपर उठाते हैं । जिस प्रतिबन्धको मनुष्य भय या स्वार्थ अथवा ऐसे ही अन्य किसी कारणसे नहीं, बल्कि दूसरोंकी भावनाका खयाल करके अथवा स्नेह-भावके वशीभूत होकर स्वीकार करता है, वैसा कोई प्रतिबन्ध पतनकारी नहीं होता" (पृष्ठ १६१) । आश्रममें प्रवेश पानेको इच्छुक कमला दास- गुप्तको चेतावनी देते हुए उन्होंने लिखा : यह तो मशक्कत करनेवाले उन लोगोंकी जगह है जो हाथ-पैरोंसे काम करनेकी आवश्यकता और उसके नैतिक मूल्यमें विश्वास रखते हैं" (पृष्ठ २८४) । बादमें वे उनको उत्साह दिलाते हुए कहते हैं: “यदि आश्रममें जानेकी आपकी इच्छा सचमुच गहरी है और उसके लिए सच्चे मनसे प्रयत्न- शील रहते हुए भी आपके अन्दर विनम्रता है तो आप अवश्य ही अपने माता-पिताके विरोधपर विजय पा लेंगी। और जबतक आप अपने माता-पिताको अनुमति देने पर राजी नहीं कर पातीं तबतक आप मानसिक रूपसे आश्रमके जीवनमें रमी रह सकती हैं" (पृष्ठ ४२१) । इस प्रकारके व्यक्तिगत परामर्शका एक रोचक उदाहरण आर्तव- कालके दौरान स्त्रियोंके अलगावकी समस्याके सम्बन्धमें मीराबहनको दी गई सलाह है । यहाँ उन्होंने मॉर्ले-कृत 'ऑन कम्प्रोमाइज' से लिये गये तर्कका उपयोग किया और सेंट पॉल द्वारा अपने अनुगामियोंको दिये गये इस निर्देशका उल्लेख किया कि यदि तुम्हारे भाईको मांसाहारसे परहेज हो तो मांससे दूर रहो। फिर उन्होंने उनको समझाते हुए लिखा : " 'कुछ काम अपने-आपमें अनैतिक नहीं होते और हम उनको दूसरोंकी खातिर करते हैं और कुछ काम अपने-आपमें अनैतिक होते हैं और इसलिए हम उनको किसीकी खातिर नहीं करते और न करना चाहिए। यदि स्वेच्छासे स्वीकार किया गया अलगावका यह नियम तुमको अनैतिक लगता है तो मुझे खुश करनेके लिए भी तुमको वह नहीं करना चाहिए और यदि वह अनैतिक न लगता हो तो तुम अपने आसपास के लोगोंके खयालसे उसे करते हुए उनको उस हदतक अज्ञानी मानो तो उचित ही होगा । (पृष्ठ ४३४-५)

एन० आर० मलकानीके सम्बन्धमें और खुद मलकानीको लिखे अनेक पत्रोंसे प्रकट होता है कि गांधीजी जिसको स्नेह करते थे उसके चारित्र्यके लिए उन्हें कितनी अधिक चिन्ता रहती थी। किसीकी चारित्रिक च्युतिकी आशंका मात्रसे उनका मन इतना अधिक विचलित हो उठता था जितना बड़ी से बड़ी सार्वजनिक घटनासे भी नहीं होता था । एन० वी० थडानीको लिखे पत्र में उन्होंने अपनी व्यथाको वाणी देते हुए कहा : " बारडोलीके मामलेने भी मेरी नींदमें कभी बाधा नहीं पहुँचाई थी, पर मलकानीका मामला पहुँचा रहा है ।" (पृष्ठ २०७-८)

सन्तोजी महाराजको लिखे गांधीजी के पत्रका भी एक विशिष्ट महत्त्व है। यह उनके जीवन-दर्शनपर प्रकाश डालता है और 'गीता' के प्रति उनके वैयक्तिक और व्यावहारिक दृष्टिकोणको उजागर करता है। उन्हें शंकर, रामानुज, मध्व तथा अन्य सभी सन्त-मनीषी प्रिय थे, किन्तु किसी एकसे उन्हें सम्पूर्ण तृप्ति नहीं हुई। उन्होंने " शास्त्रकारोंके सुझाये हुए सारे मार्गों को मिलाकर . . . अपने लिए . . . यहाँ-