पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१८

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दस

वहाँसे कुछ ले लिया . . . "( पृष्ठ ९९ ) । उनके विचारसे प्रत्येक व्यक्तिको अपने आचरणके नियम स्वयं निश्चित करने चाहिए और फिर पूरी सख्ती के साथ उनके अनुसार ही अपना जीवन चलाना चाहिए। किसीके साथ अपनी तुलना करना बिलकुल गलत है और इस तुलनाके आधारपर " अपने पापकर्मको उचित नहीं ठहराना चाहिए (पृष्ठ २११) । स्वराज्यका अर्थ दूसरेके शासन से मुक्ति के साथ-साथ आत्म- शासन भी है । अपनी इसी मान्यताका संकेत वे इन शब्दोंमें भी देते हैं : कुछ स्थितियोंमें आत्महत्या धर्म हो" जाती है (पृष्ठ ४७८) । नैतिकताका तकाजा यह है कि " जहाँ-जहाँ शंका हो, वहाँ-वहाँ उसका निर्णय हमें अपने स्वार्थके विरुद्ध करना चाहिए ।" (पृष्ठ ४३ )

जहाँ भावुक लोग अतीत और भविष्य के विषयमें सोच-सोचकर अपना समय गँवाते हैं, कर्मयोगी गांधी इस उक्तिके कायल थे कि " मेरे लिए तो बस आगेका एक कदम ही पर्याप्त है ।" उनके विचारसे हमें भूत और भविष्य दोनोंको वर्तमान में ही समाविष्ट मानना चाहिए, और वर्तमानका मतलब है, प्रस्तुत क्षणमें हमारा कर्त्तव्य । यदि हम अपने वर्तमान कर्त्तव्यको जानकर उसे पूरा करनेमें ही अपनी पूरी शक्ति लगा दें तो यह माना जायेगा कि हमने महान् पुरुषार्थ किया है । दुःख- मात्र भविष्यके काल्पनिक घोड़े दौड़ाने और भूतकालका रोना रोनेसे होता है । अतः तात्कालिक कर्त्तव्यको निभानेवालेका न तो पुनर्जन्म होता है और न मृत्यु" (पृष्ठ ६९) । इस तरहके कर्मयोगकी साधनासे मनुष्यको ज्ञानकी प्राप्ति होती है, क्योंकि स्वधर्मका पालन करनेसे मनुष्यको “ जीवमात्रकी अभिन्नताके सिद्धान्तकी प्रतीति होती . . . है ।" किन्तु " जबतक हम अपने 'अहं' को मिटाकर सर्वथा शून्य नहीं बना देते तबतक इस सिद्धान्तको चरितार्थ करना असम्भव मालूम होता है । (पृष्ठ २१९) दूसरी ओर, " जिसमें अपने अहंको भूलकर शून्य बन जानेकी शक्ति है, वह" महाजीव", अर्थात् ईश्वरकी " झाँकी पा सकता है।" (पृष्ठ ९८-९९ )

जो धर्मनिष्ठ हैं वे प्रकाशकी खोज में अतीत में भटकने के बजाय, जो कुछ उनके सामने है, जो वर्तमान है, उसीसे प्रकाश ग्रहण करते हुए कर्मरत रहते हैं । कुछ ईसाई धर्म प्रचारक गांधीजी के पास इस पृच्छाको लेकर गये थे कि ईसा मसीहके आगमन और मनुष्यके पापोंके प्रायश्चित्तके लिए उनके बलिदानका सन्देश वे कैसे फैलायें । उत्तरमें गांधीजीने कहा: “ईश्वरको वही १९०० वर्ष पहले, एक ही बार सूलीपर नहीं चढ़ना पड़ा था, एक ही बार कष्ट नहीं सहना पड़ा था। वह आज भी सूलीके कष्टको झेल रहा है, वह प्रतिदिन हमारे पापोंका प्रायश्चित्त करनेके लिए मरता है और फिर नया शरीर धारण करके उठ खड़ा होता है। यदि संसारको उसी ऐतिहासिक ईश्वरके भरोसे जीना पड़ता जो आजसे २००० वर्ष पूर्व मर चुका है, तो कहना मुश्किल है कि उससे उसे क्या सन्तोष मिलता। इसलिए, आप उस ऐतिहासिक ईश्वरकी बात लोगोंसे मत कहिए, बल्कि स्वयं अपने जीवन और आचरण में उसे सजीव रूपमें लोगोंको दिखाइए । . . . अपनी मान्यताओं और विश्वासोंका इजहार शब्दोंमें करने के बजाय उन्हें अपने जीवन में उतारकर दुनियाको दिखाना कहीं अच्छा है । " (पृष्ठ २८२)