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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उद्देश्यके आधारपर हो तो किया जाता है, और जब विनाशका उद्देश्य उस हत्याको तुलनामें अधिक कल्याण करना हो तो वह विनाश कर्त्तव्य हो जाता है और हिंसा नहीं रह जाता। मैं चाहूँगा कि मेरी इस दलीलका जवाब आप 'यंग इंडिया' में दें।

संन्यासीकी दलील युगों पुरानी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसमें काफी वजन है। अगर न होता तो प्राचीन कालसे विनाशका जो क्रम चल रहा है वह नहीं चल रहा होता । विना किसी कारणके मनमाने तौरपर बुरे काम करनेवाले लोग बहुत कम होते हैं । इतिहासमें वर्णित जघन्यतम और क्रूरतम अपराध धर्म अथवा ऐसे ही किसी सौम्य उद्देश्यकी आड़में किये गये हैं। लेकिन, मेरे विचारसे उच्चत्तम सिद्धान्त, अर्थात् धर्मके नामपर किये जानेवाले विनाशके फलस्वरूप भी हमारी स्थितिमें कोई सुधार नहीं हुआ है। यह सच है कि इस या उस रूपमें कुछ जीवोंका विनाश अवश्यम्भावी है। प्राणी अपनी जीवन रक्षाके लिए प्राणियोंपर ही निर्भर होता है । इसलिए अगर जीव-विनाश किसी उद्देश्यके लिए आवश्यक भी है तो वह है मनुष्यको प्राप्त हो सकनेवाले उस परमानन्दको कायम रखनेके लिए जो ऋषि-मुनियोंके अनुसार उस अवस्था में प्राप्त होता है जब मनुष्यके लिए एक भी जीवका नाश किये बिना जीवित रहना सम्भव हो जाता है । और यदि मनुष्य उतना ही विनाश करे जितना अनिवार्य है। - जैसे कि वनस्पतियोंके जीवनका विनाश, तो इस शरीरको धारण करते हुए भी वह उस परमानन्दकी अवस्थाको प्राप्त करनेकी आशा कर सकता है। वह दूसरे जीवोंके विनाशपर जीनेकी आवश्यकतासे, विवेकके साथ और प्रयासपूर्वक, जितना ही अधिक छुटकारा पायेगा, सत्य और ईश्वरके उतना ही निकट पहुँचेगा । और इस बातसे कि समस्त मानव-जाति द्वारा उस चीजके स्वीकार करनेकी सम्भावना नहीं है जो उसे शायद एक नीरस और आकर्षणहीन जीवन-सा प्रतीत होगा, मेरे तर्कके औचित्यमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । जो लोग ऐसा पूर्ण आत्म-त्यागमय जीवन जीते हैं तथा सृष्टिके तुच्छतम प्राणीके प्रति भी दयाका भाव रखते हैं, वे हमें ईश्वरकी शक्तिको समझनेकी क्षमता देते हैं, मानवताके उत्थापकका काम करते हैं और इसके परम लक्ष्यतक जानेवाले मार्गपर प्रकाश बिखेरते हैं। हमें जीवनको नष्ट करनेका कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि हम जीवनकी सृष्टि नहीं कर सकते। ऐसा सोचना तो मुझे नास्तिकता लगता है कि ईश्वरने कुछ जीवोंकी सृष्टि मनुष्य द्वारा, अपने आनन्दके लिए या अपने शरीरको -- उस शरीरको जिसके बारेमें वह जानता है कि किसी भी क्षण उसका नाश हो सकता है। - कायम रखनेके लिए, नष्ट कर दिये जानेके लिए ही की है। हम नहीं जानते कि जिन्हें हम हानिकर और विषैले जीव कहते हैं वे प्रकृतिकी व्यवस्था में कौन-सी भूमिका निभाते हैं। विनाशके द्वारा हम प्रकृतिके नियमोंको कभी नहीं जान पायेंगे। हमने मात्र मानव-जाति से ही नहीं, बल्कि सृष्टिके अन्य प्राणियोंसे भी प्रेम करनेवाले ऐसे लोगोंके बारेमें भी सुना है जो भयंकर वन्य पशुओंके बीच भी सर्वथा निरापद ढंगसे रहते रहे हैं। जीव-मात्रमें इतना पारस्परिक सादृश्य होता है कि जिन लोगोंने बाघ, शेर और साँपका भय त्याग दिया है और