पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१७५

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उनके पास मित्रोंकी तरह विश्वासपूर्वक गये हैं, उन्हें इन जीवोंने भी कभी कोई हानि नहीं पहुँचाई ह।

यह तर्क भ्रान्तिपूर्ण है कि अगर मैं उस साँपको, जिसके बारेमें ज्ञात है कि वह विषैला है, नहीं मारता तो वह अनेक स्त्री-पुरुषोंकी मृत्युका कारण बनेगा। यह किसी भी तरह मेरा कर्त्तव्य नहीं है कि में तमाम विषैले जीवोंको ढूंढ-ढूंढकर उन्हें मारता फिरूँ। और न मुझे यह मान लेनेकी ही जरूरत है कि जिस साँपसे मेरा सामना होता है, उसे अगर मैं नहीं मारता तो वह फिर मेरे बाद अपने पाससे गुज- रनेवाले व्यक्तिको मार ही डालेगा । उस साँप और अपने पड़ोसियोंके बीच मुझे निर्णा- यक नहीं बनना है । अपने पड़ोसियोंसे मैं अपने प्रति जैसे व्यवहारकी आशा रखता हूँ, अगर में उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता हूँ और जितने खतरेमें में स्वयं रहता हूँ उससे अधिक खतरेकी स्थितिमें उनको नहीं डालता हूँ और अगर मैं उनको हानि पहुँचाकर किसी भी तरह अपना हितसाधन नहीं करता हूँ तो इतनेसे ही उनके प्रति मेरा कर्त्तव्य पूरा हो जाता है । इस तरह मुझे साँपको अपने पड़ोसियोंके अहाते में नहीं छोड़ देना चाहिए, जैसा कि लोग अक्सर करते हैं। मैं अधिक-से-अधिक यही कर सकता हूँ कि उस साँपको जहाँतक सम्भव हो, वहाँतक वैसी जगह में छोड़ आऊँ जहाँ उससे खतरा नहीं हो और में अपने पड़ोसियोंको आगाह कर दूं कि पड़ोस में एक साँप निकला है जिसे मैंने अमुक स्थानमें छोड़ दिया है। मैं जानता हूँ कि इससे मेरे पड़ोसियोंको न तो कोई राहत मिलेगी और न सुरक्षा ही; लेकिन हम सत्यकी राहपर चलनेकी कोशिश करते हुए मृत्युसे घिरे हुए जी रहे हैं।शायद यह अच्छा ही है कि हम अपने जीवन में पग-पगपर खतरेसे घिरे हुए हैं;क्योंकि इन खतरों और अपने संकटापन्न अस्तित्वके ज्ञानके बावजूद हम जीवमात्रके स्रष्टाके प्रति उतने उदासीन रहते हैं कि अगर इसे कोई चीज मात देती है तो वह बस हमारी आश्चर्यजनक उद्धतता ही ।

संन्यासीको दिये गये इस उत्तरसे मैं सन्तुष्ट नहीं हूँ। उनके पत्रसे, जो मूलतः हिन्दी में लिखा गया है, प्रकट होता है कि वे भी मेरी ही तरह सत्यान्वेषी हैं । इस- लिए मैंने उनकी जिज्ञासाका उत्तर सार्वजनिक रूपसे देनेकी आवश्यकता महसूस की। मेरी अपनी स्थिति बड़ी दयनीय है । मेरी बुद्धिको जीवनका विनाश किसी भी रूपमें असह्य है। लेकिन मेरा हृदय इतना सशक्त नहीं है कि मैं उन प्राणियोंको मित्र बना सकूँ, जिनके बारेमें अनुभवसे यह ज्ञात होता है कि वे हानिकर प्राणी हैं। दूसरोंमें विश्वास उत्पन्न करनेवाली आत्म-विश्वासकी वह भाषा, जो वास्तविक अनुभवसे ही आती है, मेरा साथ नहीं दे रही है और जबतक मैं इतना कायर हूँ कि साँपों, बाघों और इसी तरहके अन्य जीवोंसे डरता हूँ तबतक स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी। मैंने बहुत झिझकके साथ यह उत्तर देनेका साहस किया है। लेकिन मुझे लगा कि मानव द्वारा मानव नहीं बल्कि एक खतरनाक जीव माने जानेके भयसे मैं अपने विश्वासको प्रकट न करूँ यह गलत होगा । एक बार दक्षिण आफ्रिका में ऐसे ही अवसरपर मुझे अपने जाति-धर्मसे च्युत खतरनाक जीव माने जानेका अनुभव