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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुआ था। हम कई लोग बैठे हुए बातचीत कर रहे थे कि तभी बातचीत मुड़कर इसी विषयपर आ गई। साथ बैठे मित्र अंग्रेज मिशनरी थे । पुनर्जन्म, गो-रक्षा, शाका- हार आदिके बारेमें मेरे विचारोंपर उन्हें कोई विशेष आपत्ति नहीं थी, यद्यपि उन्हें ये विचार बहुत अपरिष्कृत लग रहे थे। लेकिन जब मैंने कहा कि अगर ईश्वर मुझे साहस दे तो में यह जानते हुए भी कि अमुक साँपको न मारनेका निश्चित परिणाम खुद मेरी मृत्यु होगा, मैं उसे नहीं मारूँगा[१], तब वे चिढ़ और उकताहटके अपने भावको दबा नहीं सके और वह उनके चेहरोंपर साफ झलक आया। उसे एक दबी हुई हँसी में छिपानेकी कोशिश करते हुए वे कह ही बैठे, "अरे ! तब तो आप एक खतरनाक जीव हैं । "

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, ७-७-१९२७

११४. पत्र : बी० एफ० भरूचाको

[ ७ जुलाई, १९२७ के पश्वात् ][२]

तुम्हारे पत्र मिलते रहे हैं । तुम्हें यथाशक्ति उत्तर दे रहा हूँ; किन्तु जिससे तुम्हें पूरा सन्तोष हो जाये ऐसे उत्तरके लिए तो जैसा तुम अक्सर करते हो उसी तरह तुम्हें दौड़कर यहाँ आना चाहिए। जो उत्तर में दे रहा हूँ वे तुम्हारे लिए ही है । फिर भी यदि तुम मेरा उत्तर छापनेकी अनुमति माँगते हुए मुझे तार करोगे तो मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं । किन्तु यह में कह देना चाहता हूँ कि मेरा पिछला उत्तर छापने में तुमने भूल की है। यह उत्तर[३] मैंने तुम्हें तुम्हारी जानकारी और तुम्हें सावधान करनेके लिए लिखा था, वहाँके सत्याग्रहियोंके सामने परेशानी खड़ी करने अथवा उन्हें रोकने के लिए नहीं । जिस समय तुमने मेरी अनुमति माँगी उस समय मैं तो यह समझा था कि मेरे पत्रका आशय तुम्हें पसन्द आया है और चूंकि तुम वहाँ जो युद्ध चल रहा है उसे रोकनेकी इच्छा रखते हो इसलिए मेरे पत्रका उपयोग करना चाहते हो। इसके बजाय तुमने तो उल्टा ही काम किया। यदि तुम मेरा अभिप्राय समझे नहीं थे या वह तुम्हें पसन्द नहीं आया था तो उसे वहाँके उन योद्धाओंको बतानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी । मैं यह बिलकुल नहीं समझ पाया हूँ कि उन लोगों में फूट क्यों पैदा की गई या कैसे पैदा हो गई। किन्तु अब जो हो गया सो हो गया; उसे अब सुधारा तो जा नहीं सकता ।

फिर भी मैं इतना तो कह ही दूँ कि तुम्हें और जो अन्य मित्र नागपुरकी इस लड़ाईको सत्याग्रह रूप मानते हैं उन्हें उसे जारी रखना ही चाहिए। यदि तुम इसमें कांग्रेसकी सम्मतिकी आवश्यकता जरूरी मानते हो तो तुम्हें दृढ़तापूर्वक मेरे विचारों का खण्डन करना चाहिए और कांग्रेसकी सम्मति प्राप्त करनी चाहिए। और

  1. देखिए आत्मकथा, खण्ड ४, पृष्ठ ३५ तथा खण्ड २९, पृष्ठ १८९-१९१ भी ।
  2. २. साधन-सूत्र में इस पत्रको ७ जुलाई, १९२७ के बाद दिया गया है ।
  3. देखिए “पत्र : बी० एफ० भरूचाको", २-७-१९२७ के पूर्व ।