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८२९. दो तुलाएँ

एक ऐसी कन्याके विषयमें, जिसके विचारहीन माता-पिताने उसका विवाह बच- पनमें ही कर दिया था, जिसने पतिको कभी देखा ही नहीं था और 'विधवा' हो गई थी, लिखते हुए मैंने यह मत प्रकट किया था कि में उसे विवाहित ही नहीं मानूंगा और इस विवाद में न पड़कर कि उसे विवाहित माना जाये या न माना जाये, उसके माता-पिताको चाहिए कि वे उसका विवाह दुबारा कर दें ।

किसी समाचारपत्रमें मेरे इस मतको पढ़कर एक सज्जनने मुझे हिन्दीमें एक लम्बा पत्र लिखा है, जिसका आशय इस प्रकार है :

जिन कारणोंसे आप बाल विधवाओंका पुनर्विवाह उचित समझते हैं, वे सभी दूसरी विधवाओंपर भी लागू किये जा सकते हैं । तो फिर क्या आप विधवा मात्रके पुनर्विवाहको प्रोत्साहन देंगे ? मैं तो कहूँगा कि हमें पुरुषोंका भी पुनर्विवाह रोकना चाहिए और विधवा-विवाहकी छूट तो देनी ही नहीं चाहिये । इस प्रकारकी दलीलसे मनुष्य बहुत पाप करता आया है। मैं ऐसे मांसाहारियोंको जानता हूँ जो बहस करते हैं कि उत्तर ध्रुवमें, जहाँ बारहों महीने बर्फ जमी रहती है, मांस खाना पड़ता है, इसलिए यहाँ गरमीमें भी मांस खाने में दोष नहीं है ।

जहाँ-तहाँसे पापके समर्थनकी दलीलें हमें तुरन्त मिल जाती हैं। पुरुष पुनर्विवाहसे रुकनेवाला नहीं, मगर उसकी आड़ लेकर कहा जाता है कि विधवाको उसका न्याय्य हक देना मुल्तवी रखो । स्वराज्य के लिए हमें नालायक बतानेवाले कहते हैं : 'लायक बनो और स्वराज्य लो।' अछूतोंको दबाकर उनकी अधोगति करनेवाले हम लोग कहते हैं : 'अछूत अच्छे बनें फिर भले ही हमारे साथ मिलें ।'

बेईमान बनिये की तरह मनुष्य अपने पास दो तराजू रखता है । एक से लेता है और दूसरीसे देता है । अपने पर्वत-जैसे दोष को राई-जैसा मानता है, और दूसरे के राई-जैसे दोषको पहाड़ मानता है ।

यदि पुरुष न्यायबुद्धिसे विचार करें तो वे आसानीसे देख सकते हैं कि विधवाओंको दबानेका उन्हें अधिकार नहीं है। जिस वैधव्यका जोर-जबरदस्तीसे पालन करवाया जाता है वह भूषण नहीं, दूषण है । यह गुप्त रोग है और मौका पाते ही फूट निकलता है । वयस्क स्त्री, विधवा हो जानेपर, फिर विवाह करनेकी इच्छातक न करे तो वह जगद्वंद्या है - वह धर्मका स्तम्भ है । परन्तु जिसे पुनर्विवाहकी इच्छा हुई हो और जो समाज के भय या कानून के अंकुशसे ही रुकी हुई रही हो, वह तो मनसे पुन- विवाह कर चुकी । वह वन्दना करने लायक नहीं है, वह दयाकी पात्र है और उसे फिरसे विवाह करनेकी छूट होनी चाहिए। पहले थी भी । रूढ़िवश ऊँचे वर्गके माने जानेवाले हिन्दुओंने इस ऐच्छिक धर्मको नियमका रूप दे दिया और इस तरह धर्ममें बलात्कारके तत्त्वको दाखिल किया है ।