पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५१
दो तुलाएँ


न्याय कहता है कि जहाँतक विधुर पुरुषको पुनर्विवाह करनेका हक है, वहाँ- तक यह हक उन्हीं शर्तोंपर विधवाको भी होना चाहिए। समाजकी रक्षा के लिए कुछ विशेष प्रतिबन्धोंकी आवश्यकता होती है किन्तु वे दोनोंके लिए एक समान होने चाहिए और उनमें समझदार पुरुषवर्गकी तरह समझदार स्त्रीवर्ग की सम्मति भी होनी चाहिए।

बाल-विधवा और दूसरी विधवाओंके बीच जो भेद है, उसे भूलना नहीं चाहिए । बाल-विधवाका फिर विवाह कर देना माँ-बाप और समाजका धर्म है । परन्तु दूसरी विधवाओंके बारेमें यह बात नहीं कही जा सकती। उनके सम्बन्ध में इतना ही करनेकी आवश्यकता है कि आज उनपर रूढ़ि या कानूनका जो बन्धन लगा हुआ है, उसे दूर कर दिया जाये। यानी, वह विधवा दूसरा विवाह करना चाहे तो उसे इसकी छूट होनी चाहिए।

बड़ी उम्रको पहुँचे हुए विधुर या विधवा के पुनर्विवाहपर तो केवल लोकमतका ही अंकुश रह सकता है। अभी तो लोकमत उलटी दिशामें बह रहा है । परन्तु जहाँ धर्म, मर्यादा और संयमका पालन व्यापक होगा वहाँ बहुत ही थोड़े स्त्री-पुरुष मर्यादाका उल्लंघन करेंगे। अभी तो धर्म उन्हींका है जो उसे पालें । साठ वर्षका धनिक बूढ़ा दस-बारह सालकी लड़कीसे तीसरा विवाह करते शरमाता नहीं। और समाज उसे सह लेता है । और जब बीस वर्षकी विधवा संयमका पालन करनेकी कोशिशके बावजूद उसका पालन नहीं कर पाती और इसलिए फिर विवाह करना चाहती है तो समाज उसका तिरस्कार करता है । यह धर्म नहीं, किन्तु अधर्म है ।

इस बलात्कार, इस अधर्मको दूर करनेके बजाय दूसरे देशोंकी अनीति इत्यादिका हिसाब पेश करना निरर्थक और अप्रासंगिक है । बाल-विधवासे लेकर बूढ़ी विधवातक, सभी सती सीता-जैसी पवित्र हों तो भी मैं कहता हूँ कि अगर वे फिरसे विवाह करना चाहें तो उन्हें रोकनेका किसीको अधिकार नहीं है। उन्हें प्रेमपूर्वक समझाना समाजका काम है किन्तु उन्हें दबानेका समाजको अधिकार नहीं है ।

अपने लिए हम जिस गजका इस्तेमाल करते हैं, दूसरेके लिए भी उसीसे काम लें तो दुनियाके तीनों ताप दूर हो जायें और फिर एक बार धर्मकी संस्थापना हो ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, १०-७-१९२७