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एक पत्र

यह बात मालूम नहीं है । आप शायद यह भी नहीं जानते हैं कि अकेले 'रंगीला रसूल' का लेखक ही ऐसा गुमराह व्यक्ति नहीं है जो इस तरह की शरारतें कर रहा हो। और भी बहुत-से लोग हैं। मैंने मुसलमानों द्वारा भी उतनी ही आपत्तिजनक चीजें लिखी देखी हैं जितनी आपत्तिजनक यह पुस्तिका है । जहाँतक मैं जानता हूँ, यह कहना मुश्किल है कि इस श्रेणीके लेखकोंमें, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, कौन कम है और कौन ज्यादा; बल्कि दोनों समान रूपसे भर्त्सनीय हैं। लेकिन अगर मुझसे पूछें तो कहूँगा कि इसका इलाज अदालतोंमें नहीं हो सकता, हिंसा के द्वारा तो हो ही नहीं सकता। इसका अगर कोई इलाज है तो यह कि ऐसा स्वस्थ हिन्दू-मुस्लिम जनमत तैयार किया जाये जो साम्प्रदायिक आग भड़कानेवाली चीजोंका प्रकाशन असम्भव बना दे । लेकिन मैं जानता हूँ कि अभी मेरे विचार लोगोंको रुचेंगे नहीं। इसलिए जहाँतक सम्भव होता है, मैं अपने मौनकी नीतिपर आरूढ़ रहता हूँ । आपके पत्रको में टाल नहीं सका, और यद्यपि अभी मेरा स्वास्थ्य कमजोर ही है, फिर भी मुझे लगा कि आपको एक काफी विस्तृत उत्तर भेज दूँ । सो एक ऐसे व्यक्तिकी हैसियतसे, जिसे हिन्दू-मुस्लिम एकतासे प्रेम है और उसमें विश्वास है, जो अपनेको आपका मित्र और, यदि आपके लिए यह सम्बन्ध स्वीकार करना सम्भव हो तो, भाई मानता है, मैंने उत्तर लिख दिया है। इसे मैंने प्रकाशनार्थ नहीं लिखा है । मैंने इसे आपके पढ़नेके लिए और इस प्रयोजनसे लिखा है कि जो अन्य लोग मेरा मत जानना चाहते हों और हिन्दू-मुस्लिम एकताको बढ़ावा देनेकी इच्छा करते हों, उन्हें भी आप यह पत्र पढ़वा दें । मैं किसी अखबारी विवादमें नहीं पड़ना चाहता, बल्कि पत्रव्यवहार द्वारा भी इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता, क्योंकि उससे कोई फायदा होनेवाला नहीं है । यदि मेरा पत्र आपकी बुद्धिको न जँचे तो मेरा अनुरोध है कि आप इसे अपने दिमाग से बिलकुल निकाल दें और रद्दीकी टोकरीमें फेंक दें। और वैसे आपकी जानकारीके लिए बता दूँ कि अब में बैरिस्टर नहीं हूँ। मैं तो एक गरीब भंगी, मामूली कतैया- भर हूँ ।

हृदयसे आपका,

मो० क० गांधी

अंग्रेजी (एस० एन० १२३८४ ) की माइक्रोफिल्मसे ।