पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५९
पत्र : गोपालरावको

करो तो इस प्रतिज्ञाको लिख लेना और जैसा पिछली प्रतिज्ञाके लिए कहा है वैसा ही इसके लिए भी करना ।

यह तो मैंने तुमसे सगुण उपासना की बात कही, साकारकी पूजा सुझाई है । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के लिए जिस ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है वह निर्गुणकी उपासना करने जैसा है और इसलिए वह सबके लिए कठिन ही है ।

मैं जिस मार्गसे चलकर आया हूँ वह मार्ग मैंने तुम्हें बताया । ब्रह्मचर्यकी स्थूल उपयोगिता में से उसके सूक्ष्म रसकी केवल कुछ-एक बूंदे मेरी जीभतक आई हैं, उसका शेष रस तो बुद्धिने ही जाना है। मेरी जीभने उसके अमृत-घूंट नहीं पिये - यह याद रखना ।

इस नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका रस सचमुच कैसा होता है इसका शब्दों में वर्णन करना सम्भव हो तो विनोबा, सुरेन्द्रनाथ आदि जिन्हें मैंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पालन करनेवाला माना है, वे ही शायद कर सकते हैं। मैं तो तुम्हारे समक्ष विषय-भोग और विवाह- को जाननेवाला आदमी ब्रह्मचर्यको जिस हदतक जान सकता है उसी हृदतक उसे बता सकता हूँ अर्थात् अधूरी बात ही बता सकता हूँ। पूरी बात तो ब्रह्मचर्यका पूर्णतः पालन करनेवाले ही बता सकते हैं ।

सम्भव है कि तुम्हें इस पत्रसे भी पूरा सन्तोष न हो। तुम्हें यदि इसमें अपने प्रश्नका उत्तर न मिले तो तुम समझ लेना कि तुम्हारे उस प्रश्न- विशेषका उत्तर इसमें क्यों नहीं है । कारण यही है कि तुम्हारे प्रश्नका उत्तर अनुभवके आधार पर देनेकी मेरी योग्यता नहीं । ऐसी योग्यता न काका साहब की है, न मेरी है, न ऐसे किसी भी व्यक्तिकी हो सकती है जिसने विवाहका अनुभव लिया है। इन्हीं कारणोंसे हम शरीरधारी लोग मोक्षके सुखका केवल अधूरा वर्णन ही कर सकते हैं और वाणी तो वहाँ है जहाँ शरीर है । इसलिए मोक्ष अवर्णनीय ही है और हमेशा अवर्णनीय ही रहेगा। इसी तरह शुद्ध ब्रह्मचर्य के रास्तेका वर्णन नैष्ठिक ब्रह्मचारी ही कर सकता है या फिर हमें शास्त्रोंमें उसके जो वर्णन मिलते हैं उनके आधारपर ही अपनी गाड़ी चलानी पड़ेगी ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी |

सौजन्य : नारायण देसाई