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१३०. पत्र : जे० डब्ल्यू० पेटावेलको

कुमार पार्क,बंगलोर

१२ जुलाई ,१९२७

छोटे आकारके नौ पृष्ठोंमें लिखे आपके लेखको में ध्यानपूर्वक पढ़ गया। लेकिन उसे पढ़नेसे मेरी शंकाओंका समाधान तो क्या होता, वे और भी उलझ गईं। इसे पढ़कर भी मुझे यह नहीं मालूम हो पाया है कि बेल्जियम और स्विट्जरलैंड क्या कर रहे हैं। मैंने आपसे यह तो कभी नहीं कहा[१] कि दक्षिण आफ्रिकामें मैंने जो दो बस्तियाँ बसाईं, वे असफल साबित हुईं। इसके विपरीत, उन्होंने जहाँतक प्रयत्न किया, वहाँतक वे सफल रहीं। मैंने तो आपको सिर्फ यह जानकारी दी थी कि चूंकि ये बस्तियाँ एक हदतक सफल रही थीं, इसीलिए में उनसे वह बृहत् निष्कर्ष नहीं निकाल सकता जो आपने अपनी इस योजनासे निकाला है, जिसे किसीने आजमाकर देखा भी नहीं है ।

और जहाँतक आश्रमकी बात है, आपने मुझे कुछ नया नहीं बताया है । और जब आप मुझसे यह कहते हैं कि मुझे कोई ऐसी चीज पेश करनी चाहिए जो घंटे-भर में ही उतना दे सके जितना कि में आठ घंटेमें देनेका भरोसा दिलाता हूँ, तब हम एक ऐसे बिन्दुपर पहुँच जाते हैं जहाँ हमारी बातचीतके लिए कोई समान आधार नहीं रह जाता, एक गतिरोध पैदा हो जाता है । ३० करोड़ लोगोंको प्रति घंटा दो आने दे सकने- वाली किसी योजनाकी जानकारी मुझे तो नहीं है। मैंने आपकी योजनापर अपनी शक्ति-भर पूरा विचार किया है, लेकिन वह मुझे जँची नहीं । और न में आपके इसी विचारसे सहमत हो सकता हूँ कि धन-संग्रह और समय तथा दूरीकी बाधाको मिटानेकी आधुनिक सनकसे कुछ प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए जहाँ आपको हम दोनोंके बीच एक मिलन-बिन्दु दिखाई देता है, वहाँ मुझे ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता । आपकी असहयोगकी योजना और सहयोगकी योजना, दोनों मुझे अव्यावहारिक और समझसे परे जान पड़ती हैं। इसलिए, में 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें आपके विचारोंके लिए कोई गुंजाइश नहीं निकाल सकता ।

आपने सर आशुतोष और दूसरे व्यक्तियोंसे जो प्रमाणपत्र प्राप्त किये हैं, उनका मुझपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है क्योंकि प्रमाणपत्रोंसे मुझे बड़ी अरुचि है इतनी कि मेरे पास जो भी प्रमाणपत्र थे, सबको मैंने नष्ट कर दिया है। और चूंकि मुझे ऐसा लगता है कि मुझमें किसी योजनाके विषयमें उसके गुण-दोषोंके आधारपर राय बनानेकी क्षमता है, इसलिए प्रमाणपत्र कभी-कभी मेरे लिए बाधा-रूप साबित होते हैं और निरर्थक तो बराबर ही ।

  1. देखिए " पत्र : जे० डब्ल्यू० पेटावेलको", २३-६-१९२७।